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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 45
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - वनस्पतिर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    वन॒स्पति॒रव॑सृष्टो॒ न पाशै॒स्त्मन्या॑ सम॒ञ्जञ्छ॑मि॒ता न दे॒वः।इन्द्र॑स्य ह॒व्यैर्ज॒ठरं॑ पृणा॒नः स्वदा॑ति य॒ज्ञं मधु॑ना घृ॒तेन॑॥४५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वन॒स्पतिः॑। अव॑सृष्ट॒ इत्य॒वऽसृ॑ष्टः। न। पाशैः॑। त्मन्या॑। स॒म॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। श॒मि॒ता। न। दे॒वः। इन्द्र॑स्य। ह॒व्यैः। ज॒ठर॑म्। पृ॒णा॒नः। स्वदा॑ति। य॒ज्ञम्। मधु॑ना। घृ॒तेन॑ ॥४५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वनस्पतिरवसृष्टो न पाशैस्त्मन्या समञ्जञ्छमिता न देवः । इन्द्रस्य हव्यैर्जठरम्पृणानः स्वदाति यज्ञम्मधुना घृतेन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वनस्पतिः। अवसृष्ट इत्यवऽसृष्टः। न। पाशैः। त्मन्या। समञ्जन्निति सम्ऽअञ्जन्। शमिता। न। देवः। इन्द्रस्य। हव्यैः। जठरम्। पृणानः। स्वदाति। यज्ञम्। मधुना। घृतेन॥४५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 45
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र में वर्णित बल का धारण करनेवाला इन्द्र (वनस्पतिः) = ज्ञानरश्मियों का पति बनता है [वन=a ray of light] । २. ज्ञानी बनने के कारण ही (पाशैः) = विषयों के जालों से (अवसृष्टः न) = छूटा हुआ-सा होता है। विषयों के बन्धन से यह ऊपर उठता है। विषयों के बन्धन ज्ञान की तलवार से कट जाते हैं । ३. विषय-बन्धनों को काटकर वह (त्मन्या) = [आत्मना ] आत्मतत्त्व से (समञ्जन्) = सङ्गत होता है। विषयों से छूटने पर ही आत्मतत्त्व से मेल होता है। ४. आत्मतत्त्व से मेल के कारण (शमिता न) = यह अत्यन्त शान्त-सा हो जाता है और ५. (देव:) = दिव्य गुणोंवाला - देव बनता है। एवं, क्रम यह है 'ज्ञान, विषयबन्धन- विनाश, आत्मसंयम, शान्ति व दिव्यता' । ६. यह शान्त स्वभाववाला देव व्यक्ति (इन्द्रस्य जठरम्) = उस प्रभु के दिये हुए इस पेट को (हव्यैः) = यज्ञिय सात्त्विक पदार्थों से ही (पृणान:) = [ पूरयन्] पूरित करता है। पेट को प्रभु का समझता हुआ उसे मांसादि अदिव्य - अपवित्र पदार्थों से कभी नहीं भरता। सात्त्विक भोजनों के सेवन से उसकी वृत्ति भी सात्त्विक बनती है। ७. इस प्रकार यह (यज्ञम्) = इस जीवन-यज्ञ को (मधुना) = शहद से तथा (घृतेन) = घृत से (स्वदाति) = स्वादवाला - माधुर्यवाला बना देता है। वस्तुतः 'हव्य पदार्थ' ही हमारे भोजन होने चाहिएँ । घृत और शहद आदि सात्त्विक पदार्थों का सेवन हमारे जीवन को यज्ञरूप बना देगा।

    भावार्थ - भावार्थ- हमारे भोजन वानस्पतिक हव्य पदार्थ हों, हम मधु व घृत आदि का प्रयोग करें। इस प्रकार हमारा जीवन यज्ञरूप होगा, माधुर्यमय होगा ।

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