यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 77
ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः
देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः
छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
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पु॒त्रमि॑व पि॒तरा॑व॒श्विनो॒भेन्द्रा॒वथुः॒ काव्यै॑र्द॒ꣳसना॑भिः।यत्सु॒रामं॒ व्यपि॑बः॒ शची॑भिः॒ सर॑स्वती त्वा मघवन्नभिष्णक्॥७७॥
स्वर सहित पद पाठपु॒त्रमि॒वेति॑ पु॒त्रम्ऽइ॑व। पि॒तरौ॑। अ॒श्विना॑। उ॒भा। इन्द्र॑। आ॒वथुः॑। काव्यैः॑। द॒ꣳसना॑भिः। यत्। सु॒राम॑म्। वि। अपि॑बः। शची॑भिः। सर॑स्वती। त्वा॒। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। अ॒भि॒ष्ण॒क् ॥७७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुत्रमिव पितरावश्विनोभेन्द्रावथुः काव्यैर्दँसनाभिः । यत्सुरामँव्यपिबः शचीभिः सरस्वती त्वा मघवन्नभिष्णक् ॥
स्वर रहित पद पाठ
पुत्रमिवेति पुत्रम्ऽइव। पितरौ। अश्विना। उभा। इन्द्र। आवथुः। काव्यैः। दꣳसनाभिः। यत्। सुरामम्। वि। अपिबः। शचीभिः। सरस्वती। त्वा। मघवन्निति मघऽवन्। अभिष्णक्॥७७॥
विषय - काव्य+दंसना
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (पितरौ पुत्रम् इव) = जैसे माता-पिता पुत्र को रक्षित करते हैं उसी प्रकार (उभौ अश्विनौ) = ये दोनों (अश्विनीदेव काव्यैः) = तत्त्वज्ञान की प्रतिपादिका वाणियों से तथा (दंसनाभिः) = उत्तम कर्मों से (अवथुः) = तेरी रक्षा करते हैं, अर्थात् प्राणसाधना करने पर तेरी बुद्धि तीव्र होकर सूक्ष्मविषयों का दर्शन करनेवाली बनती है और तेरी मानसवृत्ति पवित्र होकर तुझे सदा उत्तम कर्मों में झुकाववाला करती है और २. (यत्) = जब (सुरामम्) = इस [सुष्ठु रम्यम्] अत्यन्त रमणीय, हितकर सोम का तू (व्यपिब:) = पान करता है तब (सरस्वती) = यह ज्ञानाधिदेवता (शचीभिः) = प्रज्ञापूर्वक होनेवाले कर्मों से हे मघवन् ऐश्वर्यवाले जीव ! (त्वा) = तुझे (अभिष्णक्) = उपसेवित करती है । ३. शरीर में सोम की रक्षा का यह लाभ होता है कि [क] मनुष्य यज्ञियवृत्तिवाला बनता है [ मघवन्] [ख] उसकी ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और यह सदा प्रज्ञापूर्वक पवित्र कर्मों में लगा रहता है।
भावार्थ - भावार्थ - १. प्राणापान हमारी इस प्रकार रक्षा करते हैं जैसे माता-पिता पुत्र की । प्राणसाधना करने पर मनुष्य कवियों की दृष्टि प्राप्त करता है, उत्तम कर्मों में व्यापृत होता है । २. इस प्राणसाधना से सोम [वीर्य] का रक्षण होने पर ज्ञानाधिदेवता हमारे जीवन को प्रज्ञापूर्वक कर्मों से उपसेवित करती है और हम पापशून्य ऐश्वर्यवाले बनते हैं।
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