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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 46
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - अश्व्यादयो देवताः छन्दः - कृतिः स्वरः - षड्जः
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    होता॑ यक्ष॒द् वन॒स्पति॑म॒भि हि पि॒ष्टत॑मया॒ रभि॑ष्ठया रश॒नयाधि॑त। यत्रा॒श्विनो॒श्छाग॑स्य ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ सर॑स्वत्या मे॒षस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रेन्द्र॑स्यऽऋष॒भस्य॑ ह॒विषः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रा॒ग्नेः प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ सोम॑स्य प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रेन्द्र॑स्य सु॒त्राम्णः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॑ सवि॒तुः प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्र॒ वरु॑णस्य प्रि॒या धामा॑नि यत्र॒ वन॒स्पतेः॑ प्रि॒या पाथा॑सि॒ यत्र॑ दे॒वाना॑माज्य॒पानां॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ यत्रा॒ग्नेर्होतुः॑ प्रि॒या धामा॑नि॒ तत्रै॒तान् प्र॒स्तुत्ये॑वोप॒स्तुत्ये॑वो॒पाव॑स्रक्ष॒द् रभी॑यसऽइव कृ॒त्वी कर॑दे॒वं दे॒वो वन॒स्पति॑र्जु॒षता॑ ह॒विर्होत॒र्यज॑॥४६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    होता॑। य॒क्ष॒त्। वन॒स्पति॑म्। अ॒भि। हि। पि॒ष्टत॑म॒येति॑ पि॒ष्टऽत॑मया। रभि॑ष्ठया। र॒श॒नया॑। अधि॑त। यत्र॑। अ॒श्विनोः॑। छाग॑स्य। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। सर॑स्वत्याः। मे॒षस्य॑। ह॒विषः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। इन्द्र॑स्य। ऋ॒ष॒भस्य॑। ह॒विषः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। अ॒ग्नेः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। सोम॑स्य। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। इन्द्र॑स्य। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। स॒वि॒तुः। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। वरु॑णस्य। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। वन॒स्पतेः॑। प्रि॒या। पाथा॑ꣳसि। यत्र॑। दे॒वाना॑म्। आ॒ज्य॒पाना॒मित्या॑ज्य॒ऽपाना॑म्। प्रि॒या। धामा॑नि। यत्र॑। अ॒ग्नेः। होतुः॑। प्रि॒या। धामा॑नि। तत्र॑। ए॒तान्। प्र॒स्तुत्ये॒वेति॑ प्र॒ऽस्तुत्य॑ऽइव। उ॒प॒स्तुत्ये॒वेत्यु॑प॒ऽस्तुत्य॑इव। उपाव॑स्रक्ष॒दित्यु॑प॒ऽअव॑स्रक्षत्। रभी॑यसऽइ॒वेति॒ रभी॑यसःइव। कृ॒त्वी। कर॑त्। ए॒वम्। देवः॑। वन॒स्पतिः॑। जु॒षता॑म्। ह॒विः। होतः॑। यज॑ ॥४६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    होता यक्षद्वनस्पतिमभि हि पिष्टतमया रभिष्टया रशनयाधित । यत्राश्विनोश्छागस्य हविषः प्रिया धामानि यत्र सरस्वत्या मेषस्य हविषः प्रिया धामानि यत्रेन्द्रस्य ऋषभस्य हविषः प्रिया धामानि यत्राग्नेः प्रिया धामानि यत्र सोमस्य प्रिया धामानि यत्रेन्द्रस्य सुत्राम्णः प्रिया धामानि यत्र सवितुः प्रिया धामानि यत्र वरुणस्य प्रिया धामानि यत्र वनस्पतेः प्रिया पाथाँसि यत्र देवानामाज्यपानाम्प्रिया धामानि यत्राग्नेर्हातुः प्रिया धामानि तत्रैतान्प्रस्तुत्येवोपस्तुत्येवोपावस्रक्षद्रभीयसऽइव कृत्वी करदेवन्देवो वनस्पतिर्जुषताँ हविर्हातर्यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    होता। यक्षत्। वनस्पतिम्। अभि। हि। पिष्टतमयेति पिष्टऽतमया। रभिष्ठया। रशनया। अधित। यत्र। अश्विनोः। छागस्य। हविषः। प्रिया। धामानि। यत्र। सरस्वत्याः। मेषस्य। हविषः। प्रिया। धामानि। यत्र। इन्द्रस्य। ऋषभस्य। हविषः। प्रिया। धामानि। यत्र। अग्नेः। प्रिया। धामानि। यत्र। सोमस्य। प्रिया। धामानि। यत्र। इन्द्रस्य। सुत्राम्ण इति सुऽत्राम्णः। प्रिया। धामानि। यत्र। सवितुः। प्रिया। धामानि। यत्र। वरुणस्य। प्रिया। धामानि। यत्र। वनस्पतेः। प्रिया। पाथाꣳसि। यत्र। देवानाम्। आज्यपानामित्याज्यऽपानाम्। प्रिया। धामानि। यत्र। अग्नेः। होतुः। प्रिया। धामानि। तत्र। एतान्। प्रस्तुत्येवेति प्रऽस्तुत्यऽइव। उपस्तुत्येवेत्युपऽस्तुत्यइव। उपावस्रक्षदित्युपऽअवस्रक्षत्। रभीयसऽइवेति रभीयसःइव। कृत्वी। करत्। एवम्। देवः। वनस्पतिः। जुषताम्। हविः। होतः। यज॥४६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 46
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    पदार्थ -
    १. (होता) = त्यागशील पुरुष (वनस्पतिम्) = वनस्पति को (यक्षत्) = अपने साथ सङ्गत करता है। यह सदा वानस्पतिक भोजन ही करता है। २. इस वानस्पतिक भोजन के साथ यह (हि) = निश्चय से (रशनया) = रशना से, मेखला से दृढ़निश्चय की प्रतीकभूत इस तगड़ी [Gridle] से अपने को (अभ्यधित) = धारण करता है, अर्थात् दृढ़ निश्चय करता है। यह मेखला कैसी है? [क] (पिष्टतमया) = [ अत्यन्त पिष्ट, सुरूपा पिष्टम् - म०] यह जीवन को अत्यन्त सुरूप बनानेवाली है तथा (रभिष्ठया) = काम-क्रोधादि पशुओं का अत्यन्त नियमन करनेवाली है [रभते पशून् नियमयति-म० ] और [समर्थया] अत्यन्त शक्तिशाली बनानेवाली है। वस्तुतः दृढनिश्चय कर लेने पर यह अपने जीवन को अत्यन्त सुन्दर व सामर्थ्यसम्पन्न बना पाता है। ३. यह वानस्पतिक भोजन तथा मेखला वह है (यत्र) = जहाँ [क] (अश्विनो:) = प्राणापान के (छागस्य हविष:) = अजमोद ओषधि की हवि के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेज हैं, अर्थात् वानस्पतिक भोजन व दृढ़निश्चय के साथ जब इस अजमोद ओषधि का हविरूप में प्रयोग होता है तब प्राणापान की शक्ति को खूब बढ़ानेवाली होती है। [ख] (यत्र) = जहाँ (सरस्वत्याः) = ज्ञानाधिदेवता के साथ सम्बद्ध (मेषस्य हविषः) = मेढ़ासिंगी ओषधि की हवि के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेज हैं [ग] (यत्र) = जहाँ (इन्द्रस्य) = आत्मशक्ति सम्पन्न जितेन्द्रिय पुरुष के साथ सम्बद्ध (ऋषभस्य हविषः) = ऋषभक ओषधि की हवि के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेज हैं। [घ] (यत्र) = जहाँ (अग्नेः प्रिया धामानि) = अग्नितत्त्व के प्रिय तेज हैं, अर्थात् ये वानस्पतिक भोजन व दृढ़निश्चय मनुष्य को अग्नि के समान तेजस्वी बनाते हैं। [ङ] (यत्र) = जहाँ (सोमस्य प्रिया धामानि) = सोम के प्रिय तेज हैं, अर्थात् यह जहाँ अग्नि के समान तेजस्वी होता है वहाँ सोम के समान शान्त होता है [ सोम-चन्द्रमा] । [च] (यत्र) = जहाँ (सुत्राम्णः इन्द्रस्य) = रोगों से अपने को पूर्णरूप से रक्षित करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुष के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेज हैं, अर्थात् इनके होने पर मनुष्य नीरोग व जितेन्द्रिय बनता है। [छ] (यत्र) = जहाँ (सवितुः) = उत्पादक के प्रिया धामानि प्रिय तेज हैं, अर्थात् वानस्पतिक भोजन व दृढ़निश्चय मनुष्य को निर्माणात्मक कामों में लगनेवाला बनाता है। [ज] (यत्र) = जहाँ (वरुणस्य) = द्वेष-निवारण की देवता के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेज हैं, अर्थात् वानस्पतिक भोजन व दृढनिश्चय मनुष्य को द्वेष से ऊपर उठा देते हैं। [झ] (यत्र) = जहाँ (वनस्पतेः) = वनस्पति के (प्रिया पाथांसि) = प्रिय अन्न हैं, जो अन्न शरीर के पूर्णतया रक्षक हैं। [ञ] (यत्र) = जहाँ (आज्यपानाम्) = घृत का पान करनेवाले (देवानाम्) = दिव्य वृत्तिवाले पुरुषों के प्रिया धामानि प्रिय तेज हैं, अर्थात् वनस्पति भोजन करनेवाला दृढनिश्चयी पुरुष आज्य का पान करनेवाले देवों के समान बनता है। [त] (यत्र) = जहाँ (होतुः अग्नेः) = दानपूर्वक अदन करनेवाले प्रगतिशील पुरुष के (प्रिया धामानि) = प्रिय तेज हैं। ४. (तत्र) = वहाँ अर्थात् उस वनस्पति व मेखला में, अर्थात् इनके होने पर (एतान्) = इन 'छाग- मेष व ऋषभ' को (प्रस्तुत्य इव) = अग्निकुण्ड में प्रस्तुत-सा करके, अर्थात् प्राप्त कराके उपस्तुत्य इव अग्नि द्वारा सूक्ष्म कणों के रूप में अपने समीप प्राप्त कराके (रभीयसः इव कृत्वी) = बड़ा शक्तिशाली बनाकर (उपावस्त्रक्षत्) = अपने समीप, अपने शरीर में स्थापित करे [ स्थापयतु - म० ] । ५. यह (देवः वनस्पतिः) = दिव्य गुणोंवाला वनस्पति (एवं करत्) = ऐसा ही करे, अर्थात् हमारे जीवन को उल्लिखित तेजों से युक्त करे। ६. इसके लिए होता को चाहिए कि (हविः जुषताम्) = वह हवि का सेवन करनेवाला बने। प्रभु कहते हैं कि (होत:) = हे यज्ञशील पुरुष ! तू (यज) = यज्ञ करनेवाला बन ।

    भावार्थ - भावार्थ-जीवन को सुन्दर व सामर्थ्यसम्पन्न बनाने के लिए आवश्यक है कि वानस्पतिक भोजन का अङ्गीकार करें और दृढ़निश्चयी बनें।

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