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  • यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 10
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सूर्यो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    सूर्य॑ऽएका॒की च॑रति च॒न्द्रमा॑ जायते॒ पुनः॑। अ॒ग्निर्हि॒मस्य॑ भेष॒जं भूमि॑रा॒वप॑नं म॒हत्॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्यः॑। ए॒का॒की। च॒र॒ति॒। च॒न्द्रमाः॑। जा॒य॒ते॒। पुन॒रिति॒ऽपुनः॑। अ॒ग्निः। हि॒मस्य॑। भे॒ष॒जम्। भूमिः॑। आ॒वप॑न॒मित्या॒वप॑नम्। म॒हत्॥१० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यऽएकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुनः । अग्निर्धिमस्य भेषजम्भूमिरावपनम्महत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्यः। एकाकी। चरति। चन्द्रमाः। जायते। पुनरितिऽपुनः। अग्निः। हिमस्य। भेषजम्। भूमिः। आवपनमित्यावपनम्। महत्॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 23; मन्त्र » 10
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    पदार्थ -
    १. प्रस्तुत मन्त्रों में साहित्य में प्रश्नोत्तर के प्रकार से प्रतिपादन की शैली का सुन्दरतम उदाहरण मिलता है। वनपर्व की समाप्ति पर यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में यही शैली प्रयुक्त हुई है । २. प्रथम प्रश्न यह है कि (स्वित्) = भला (कः) = कौन, (एकाकी) = अकेला (चरति) = विचरता है ? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि (सूर्य:) = सूर्य (एकाकी) = अकेला (चरति) = चलता है। [क] सब ब्रह्माण्ड को गति देनेवाला परमात्मा सूर्य है। वह अपने कार्यों में दूसरे की सहायता पर निर्भर न करता हुआ अकेला विचरता है। [ख] समाज में संन्यासी भी सूर्य है। वह भी अकेला विचरता है। 'अरुचिर्जनसंसदि' = उसे जनसंघ रुचिकर नहीं होता। [ग] शरीर में सूर्य 'चक्षु' है। यह चक्षु भी प्रमाणान्तर की अपेक्षा न करती हुई स्वयं प्रमाण होती है और इस प्रकार अकेली विचरती है। यही भावना 'प्रत्यक्षे किं प्रमाणाम्' इन शब्दों से कही गई है। [घ] मनुष्य को सामान्यतः यही प्रयत्न करना चाहिए कि वह अपने कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भर न रहकर स्वयं कर सके तभी वह सूर्य के समान चमकेगा। सूर्य के आश्रित अन्य पिण्ड हैं, सूर्य उनका आश्रित नहीं, इसीलिए सूर्य 'सूर्य' है। ३. अब दूसरा प्रश्न यह है कि (स्वित्) = भला (कः) = कौन निश्चय से (पुनः) = फिर (जायते) = प्रादुर्भूत व विकसित होता है। उत्तर देते हुए कहते हैं कि (चन्द्रमा:) = चाँद (पुनः) = फिर (जायते) = विकसित होता है। [क] आधिदैविक जगत् में चन्द्रमा कृष्णपक्ष में क्षीण होकर शुक्लपक्ष में फिर प्रादुर्भूत होता दिखता है। [ख] शरीर में यह मन के रूप से है 'चन्द्रमा मनो भूत्वा' चन्द्रमा ही तो मन [moon] बनकर हृदय में प्रविष्ट होता है। किसी भी मनुष्य का विकास इस मन के विकास के अनुपात में ही होता है। मन की आह्लादमयता ही मनुष्य के स्वास्थ्य के विकास का भी कारण बनती है। [ग] एक गृहस्थ में नव उत्पन्न सन्तान 'चन्द्र' तुल्य है। यह दिन-ब-दिन विकास को प्राप्त होती चलती है। ४. तीसरा प्रश्न है (स्वित्) = भला (हिमस्य) = शीत का (किं भेषजम्) = क्या औषध है ? उत्तर देते हुए कहते हैं कि (अग्निः) = आग (हिमस्य) = शीत का (भेषजम्) = औषध है। [क] आधिदैविक जगत् का अग्निदेव तो शीत से त्राण करता ही है। [ख] आधिभौतिक जगत् में जब आन्दोलन ठण्डा पड़ जाता है और लोगों का उत्साह मन्द हो जाता है तब एक नेता अग्नि की प्रतिनिधिभूत वाणी से [अग्निर्वाग् भूत्वा] लोगों में फिर से उत्साह का सञ्चार कर देता है, आन्दोलन में फिर से गर्मी आ जाती है। [ग] शरीर में जब तक यह अग्नितत्त्व विद्यमान रहता है तब तक मनुष्य ठण्डा नहीं पड़ता, मरता नहीं । ५. चौथा प्रश्न है (किम् उ) = और कौन-सा (महत् आवपनम्) = महनीय, महत्त्वपूर्ण बोने का स्थान है ? उत्तर देते हुए कहते हैं कि (भूमिः) = यह पृथिवी ही (महत् आवपनम्) = महत्त्वपूर्ण बोने का स्थान है। [क] वस्तुतः सभी बीज इसी भूमि में बोये जाते हैं। यह भूमि ही सब साधनों का क्षेत्र है। [ख] अध्यात्म में 'पृथिवी शरीरम्' यह शरीर पृथिवी है। इसे 'क्षेत्र' कहते हैं। इसी में दिव्य गुणों व विकास के बीज बोये जाते हैं। इसी में बीज - सोम-वीर्य का आवपन करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । सोम को इस शरीर में सुरक्षित रखने पर ही सब प्रकार की उत्पत्ति [विकास] निर्भर है।

    भावार्थ - भावार्थ- हमें सूर्य की भाँति अपराश्रित रूप में विचरना है, अपने कार्य स्वयं करने हैं। मन के विकास से अपने विकास को सिद्ध करना है। अपनी वाणी को अग्नि के समान ओजस्वी बनाकर सर्वत्र उत्साह का सञ्चार करना है और इस शरीररूप पृथिवी में सोम का वपन करते हुए इसे महत्त्वपूर्ण आवपन बनाना है।

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