यजुर्वेद - अध्याय 23/ मन्त्र 41
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - प्रजा देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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अ॒र्द्ध॒मा॒साः परू॑षि ते॒ मासा॒ऽआच्छ्॑यन्तु॒ शम्य॑न्तः।अ॒हो॒रा॒त्राणि॑ म॒रुतो॒ विलि॑ष्टꣳ सूदयन्तु ते॥४१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्द्ध॒मा॒सा इत्य॑र्द्धमा॒साः। परू॑ꣳषि। ते॒। मासाः॑। आ। छ्यन्तु॒। शम्य॑न्तः। अ॒हो॒रा॒त्राणि॑। म॒रुतः॑। विलि॑ष्ट॒मिति॒ विऽलि॑ष्टम्। सू॒द॒य॒न्तु॒। ते॒ ॥४१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्धमासाः परूँषि ते मासाऽआच्छ्यन्तु शम्यन्तः । अहोरात्राणि मरुतो विलिष्टँ सूदयन्तु ते ॥
स्वर रहित पद पाठ
अर्द्धमासा इत्यर्द्धमासाः। परूꣳषि। ते। मासाः। आ। छ्यन्तु। शम्यन्तः। अहोरात्राणि। मरुतः। विलिष्टमिति विऽलिष्टम्। सूदयन्तु। ते॥४१॥
विषय - दिन-रात, पक्षों व मासों की अनुकूलता
पदार्थ -
१. (अर्धमासा:) = आधे मास, अर्थात् शुक्लपक्ष व कृष्णपक्ष, (मासाः) = वर्ष के बारह महीने, (शम्यन्तः) = तेरे जीवन को शान्त बनाते हुए (ते परूँषि) = तेरे सब जोड़ों [joints] को (आच्छ्यन्तु) = दोषों से छिन्न-रहित करें। दोनों पक्ष तेरे अनुकूल हों। मास भी तेरे अनुकूल हों। उनके अनुकूल व्यवहार करने से तेरे सब पर्व दोषशून्य हों। २. (अहोरात्राणि) = दिन-रात अर्थात् सदा (मरुतः) = ये ४९ प्रकार की वायु (ते) = तेरे (विलिष्टम्) = थोड़े-से भी अल्पीभाव व न्यूनता को (सूदयन्तु) = नष्ट करें। जिस समय मनुष्य प्रत्येक मास का ध्यान करते हुए तथा पक्षों का विचार करते हुए अपना आहार-विहार ठीक रखता है तो शरीर में सब प्राणवायुएँ ठीक कार्य करती हैं और वे (मरुत्) = प्राण दिन-रात उसकी न्यूनताओं को दूर करने में लगे रहते हैं। शरीर में होनेवाली थोड़ी-थोड़ी कमी को भी [विलिष्टम्] ये दूर करके इसे पूर्ण स्वस्थ बनानेवाले होते हैं।
भावार्थ - भावार्थ-अर्धमास, मास, दिन-रात व प्राण [मरुत्] हमारे अनुकूल हों और हमारे थोड़े-से भी दोष को दूर करनेवाले हों।
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