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  • यजुर्वेद - अध्याय 27/ मन्त्र 40
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    कस्त्वा॑ स॒त्यो मदा॑नां॒ मꣳहि॑ष्ठो मत्स॒दन्ध॑सः।दृ॒ढा चि॑दा॒रुजे॒ वसु॑॥४०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः। त्वा॒। स॒त्यः। मदा॑नाम्। मꣳहि॑ष्ठः। म॒त्स॒त्। अन्ध॑सः। दृ॒ढा। चि॒त्। आ॒रुज॒ऽइत्या॒ऽरुजे॑। वसु॑ ॥४० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कस्त्वा सत्यो मदानाँ मँहिष्ठो मत्सदन्धसः । दृढा चिदारुजे वसु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कः। त्वा। सत्यः। मदानाम्। मꣳहिष्ठः। मत्सत्। अन्धसः। दृढा। चित्। आरुजऽइत्याऽरुजे। वसु॥४०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 27; मन्त्र » 40
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    पदार्थ -
    १. वामदेव अपने को ही सम्बोधन करते हुए कहते हैं (त्वा) = तुझे (कः) = अनिर्वचनीय व आनन्दमय प्रभु, (सत्यः) = जो सत्यस्वरूप हैं तथा (मदानाम्) = ज्ञानानन्दों व उल्लासों के (मंहिष्ठ:) = [दातृतम] अधिक-से-अधिक देनेवाले हैं, (अन्धसः) = आध्यायनीय सोम के द्वारा (मत्सत्) = आनन्दित करते हैं। आनन्द प्राप्ति का कारण मन की शुद्धता है 'आनन्द व मनःप्रसाद' पर्यायवाची से हो गये हैं। एवं मन की शुद्धि तो सत्य से होती है और शरीरशुद्धि के लिए सोम की रक्षा आवश्यक है। मन व शरीर की शुद्धि होने पर आनन्द प्राप्ति का न होना असम्भव है। संक्षेप में यह आवश्यक है कि हम [क] सत्य बोलें [ख] प्रसन्न रहें [ग] सोम की रक्षा द्वारा स्वस्थ शरीरवाले बनें। २. हे प्रभो! आप दृढा (चित् वसु) = बड़े दृढ़ व कठोर भी कनक [स्वर्ण] आदि धनों को (आरुजे) = छिन्न-भिन्न कर देते हो, उन्हें चूर्ण करके सबमें बाँटनेवाले होते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- वे अनिर्वचनीय, आनन्दमय, सत्यस्वरूप, सर्वाधिक आनन्द के दाता प्रभु सोमरक्षा के द्वारा हमारे जीवन को उल्लास से युक्त करते हैं। वे कठोर स्वर्णादि धनों को बाँट-बाँटकर सबके लिए देते हैं।

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