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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 18
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अत्रा॑ ते रू॒पमु॑त्त॒मम॑पश्यं॒ जिगी॑षमाणमि॒षऽआऽप॒दे गोः।य॒दा ते॒ मर्त्तो॒ऽअनु भोग॒मान॒डादिद् ग्रसि॑ष्ठ॒ऽओष॑धीरजीगः॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत्र॑। ते॒। रू॒पम्। उ॒त्त॒ममित्यु॑त्ऽत॒मम्। अ॒प॒श्य॒म्। जिगी॑षमाणम्। इ॒षः। आ। प॒दे। गोः। य॒दा। ते॒। मर्त्तः॑। अनु॑। भोग॑म्। आन॑ट्। आत्। इत्। ग्रसि॑ष्ठः। ओष॑धीः। अ॒जी॒ग॒रित्य॑जीगः ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्रा ते रूपमुत्तममपश्यञ्जिगीषमाणमिषऽआ पदे गोः । यदा ते मर्ताऽअनु भोगमानडादिद्ग्रसिष्ठऽओषधीरजीगः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अत्र। ते। रूपम्। उत्तममित्युत्ऽतमम्। अपश्यम्। जिगीषमाणम्। इषः। आ। पदे। गोः। यदा। ते। मर्त्तः। अनु। भोगम्। आनट्। आत्। इत्। ग्रसिष्ठः। ओषधीः। अजीगरित्यजीगः॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 18
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    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार जब मैं रजोगुण से ऊपर उठकर सात्त्विक मार्ग पर चलता हूँ तब (अत्र) = यहाँ (ते) = तेरे (उत्तमम् रूपम्) = सर्वोत्तम सच्चिदानन्दरूप को (अपश्यम्) = देखता हूँ। जो तेरा रूप (जिगीषमाणम्) = मेरी सब वासनाओं को जीतने की कामना करता है, अर्थात् आपके रूपदर्शन से ही मेरी सब वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं। २. आपके दर्शन से मैं (गोः पदे) = इस वेदवाणी के पद में दिव्य प्रेरणाओं को (अपश्यम्) = अपने सारे जीवन के लिए देखता हूँ। मुझे इन वेदवाणियों से सुन्दर प्रेरणाएँ प्राप्त होती हैं। ३. इन प्ररेणाएँ को सुननेवाला (ते मर्तः) = आपका यह मनुष्य (यत्) = जब (अनु) = यज्ञ के बाद (भोगम् आनट्) = भोग को व्याप्त करता है, अर्थात् यज्ञशेष का सेवन करता है, ('त्यक्तेन भुञ्जीथा:') इन शब्दों के अनुसार त्यागपूर्वक उपभोग में प्रवृत होता है (आत् इत्) = तभी सचमुच यह (ग्रसिष्ठः) = सर्वोत्तम भक्षण करनेवाला होता है। अकेला खानेवाला तो निकृष्ट भोगी है। ४. यह उत्तम भोक्ता (ओषधीः अजीगः) = ओषधियों का ही निगरण करता है। यह कभी भी मांसमोजन में प्रवृत्त नहीं होता।

    भावार्थ - भावार्थ - सात्त्विक मार्ग पर चलने से प्रभु का दर्शन होता है, क्रोधादि को हम जीत पाते हैं, वेदवाणी से प्रतिपादित मार्ग पर चलते हैं, यज्ञशेष का सेवन करते हैं, ओषधि-वनस्पतियों को अपनाते हैं।

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