यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 13
ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
0
त्वा हि म॒न्द्रत॑ममर्कशो॒कैर्व॑वृ॒महे॒ महि॑ नः॒ श्रोष्य॑ग्ने।इन्द्रं॒ न त्वा॒ शव॑सा दे॒वता॑ वा॒युं पृ॑णन्ति॒ राध॑सा॒ नृत॑माः॥१३॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम्। हि। म॒न्द्रत॑म॒मिति॑ म॒न्द्रऽत॑मम्। अ॒र्क॒शो॒कैरित्य॑र्कऽशो॒कैः। व॒वृ॒महे॑। महि॑। नः॒। श्रोषि॑। अ॒ग्ने॒ ॥ इन्द्र॑म्। न। त्वा॒। शव॑सा। दे॒वता॑। वा॒युम्। पृ॒ण॒न्ति॒। राध॑सा। नृत॑मा॒ इति॒ नृऽत॑माः ॥१३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वाँ हि मन्द्रतममर्कशोकैर्ववृमहे महि नः श्रोष्यग्ने । इन्द्रन्न त्वा शवसा देवता वायुम्पृणन्ति राधसा नृतमाः ॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वाम्। हि। मन्द्रतममिति मन्द्रऽतमम्। अर्कशोकैरित्यर्कऽशोकैः। ववृमहे। महि। नः। श्रोषि। अग्ने॥ इन्द्रम्। न। त्वा। शवसा। देवता। वायुम्। पृणन्ति। राधसा। नृतमा इति नृऽतमाः॥१३॥
विषय - मन्द्रतम इन्द्र व वायु का आराधन
पदार्थ -
१. गत मन्त्र के आशीर्वाद को सुनकर अग्नि प्रभु से कहता है कि (मन्द्रतमम्) = अत्यन्त आनन्दमय [Delightful] और प्रशंसनीय [praise worthy ] (त्वां हि) = निश्चय से तुझे ही (अर्कशोकैः) = [अर्च्, शुच्] पूजाओं व ज्ञानदीप्तियों के द्वारा (ववृमहे) = हम वरते हैं। हमारी पूजा की वृत्ति व ज्ञान की दीप्तियों से प्रसन्न (अग्ने) = आगे ले चलनेवाले प्रभो! आप (नः) = हमें (महि) = महत्ता व बुद्धि [greatness व Intellect] श्रोषि देने की प्रतिज्ञा करते हैं। [प्रतिश्रु= to promise, to give, सन्तुष्टि = a boon] उपर्युक्त कथन में तीन बातें स्पष्ट हैं- [क] प्रभु अत्यन्त आनन्दमय हैं [ख] उस आनन्दमय प्रभु का आराधन (अर्कशोकैः) = अर्चना- मन्त्रों से तथा ज्ञान की दीप्तियों से होता है, [ग] प्रसन्न हुए हुए प्रभु हमें बुद्धि व महत्ता प्राप्त कराते हैं। यह समझदारी व उदार हृदयता हमें भी आनन्दमय बनाती है। २. (इन्द्रं न) = सूर्य के समान देदीप्यमान (त्वा) = आपको (देवता) = दैवी सम्पत्तिवाले लोग (शवसा) = बल के द्वारा (पृणन्ति) = प्रसन्न व प्रीणित करते हैं। ('ब्रह्म सूर्यसमं ज्योति:') [यजु:०] वे प्रभु सूर्य के समान ज्योतिर्मय हैं। उस प्रभु की ज्योति की कल्पना तभी कुछ हो सकती है यदि हज़ारों सूर्यों की ज्योति आकाश में इकट्ठी उठ खड़ी हो। इस सूर्य के समान ज्योतिर्मय प्रभु को आराधित करने के लिए आराधक ने भी (देवता) = [ दीपनाद्वा द्योतनाद्व] चमकने व चमकानेवाला बनना है। ज्ञान की ज्योति के साथ उसने [ शवसा ] बल का भी सम्पादन करना है। ३. (वायुम्) = [वा गतौ ] वायु की भाँति निरन्तर गतिशील आपको, स्वाभाविक क्रियावाले आपको, (नृतमा:) = अपने को अधिक-से-अधिक उन्नति करनेवाले लोग (राधसा) = [राध सिद्धौ] सिद्धि व सफलता के द्वारा (पृणन्ति) = प्रीणित करते हैं। क्रियाशील प्रभु को वही आराधित कर सकेगा जो पौरुष को अपनाकर मनुष्यों में उत्कृष्ट मनुष्य [नृतम] बनेगा। ४. अपने अन्दर (शवस्) = शक्ति का (भरद्) = भरनेवाला ‘भरद्वाज' ही प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि है।
भावार्थ - भावार्थ - [क] हम उपासना व ज्ञानदीप्ति से आनन्दमय प्रभु को आराधित करके हृदय की महत्ता व बुद्धि को प्राप्त करें। ये ही दो वस्तुएँ हमारे जीवन को आनन्दमय बनाती हैं। [ख] हम देव बनकर बल की साधना से उस सर्वशक्तिसम्पन्न इन्द्र का आराधन करें तथा [ग] सदा क्रियाशील प्रभु को पौरुषमय जीवन से प्राप्त करें।
इस भाष्य को एडिट करेंAcknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal