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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 15
    ऋषिः - प्रस्कण्व ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः
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    श्रु॒धि श्रु॑त्कर्ण॒ वह्नि॑भिर्दे॒वैर॑ग्ने स॒याव॑भिः। आ सी॑दन्तु ब॒र्हिषि॑ मि॒त्रोऽअ॑र्य्य॒मा प्रा॑त॒र्यावा॑णोऽअध्व॒रम्॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रु॒धि। श्रु॒त्क॒र्णेति॑ श्रुत्ऽकर्ण। वह्नि॑भि॒रिति॒ वह्नि॑ऽभिः। दे॒वैः। अ॒ग्ने॒। स॒याव॑भि॒रिति॑ स॒याव॑ऽभिः ॥ आ। सी॒द॒न्तु॒। ब॒र्हिषि॑। मि॒त्रः। अ॒र्य्य॒मा। प्रा॒त॒र्यावा॑णः। प्रा॒त॒र्यावा॑न॒ इति॑ प्रातः॒ऽयावा॑नः। अ॒ध्व॒रम् ॥१५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रुधि श्रुत्कर्ण वह्निभिर्देवैरग्ने सयावभिः । आसीदन्तु बर्हिषि मित्रोऽअर्यमा प्रातर्यावाणोऽअध्वरम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    श्रुधि। श्रुत्कर्णेति श्रुत्ऽकर्ण। वह्निभिरिति वह्निऽभिः। देवैः। अग्ने। सयावभिरिति सयावऽभिः॥ आ। सीदन्तु। बर्हिषि। मित्रः। अर्य्यमा। प्रातर्यावाणः। प्रातर्यावान इति प्रातःऽयावानः। अध्वरम्॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 15
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    पदार्थ -
    १. हे (श्रुत्कर्ण) = ज्ञान का विकीर्ण करनेवाले [श्रुत ज्ञान, कर्ण-विकीर्ण करना] और इस प्रकार अग्ने अग्रेणी प्रभो! (श्रुधि) = आप हमारी प्रार्थना को सुनिए । प्रभु ज्ञान को सदैव प्रसृत कर रहे हैं। उस प्रसृत होते हुए ज्ञान को ग्रहण वही कर पाता है जिसका हृदय पवित्र होता है। इस पवित्र हृदय की प्रार्थना का स्वरूप है- २. (वह्निभिः) = [ वह to carry ] आप तक प्राप्त करानेवाले तथा (सयावभिः) = सदा साथ-साथ प्राप्त होनेवाले (देवैः) = देवों के साथ (बर्हिषि) = मेरे उस हृदय में, जिसमें से वासनाओं का उद्बर्हण कर दिया गया है तथा जो [बृहि वृद्धौ] बढ़ा हुआ है, अर्थात् विशाल है, उस हृदय में प्रातः - प्रातः (आसीदन्तु) = आकर विराजें। कौन ? - [क] (मित्र:) = स्नेह की भावना [ख] (अर्यमा) = देने की भावना [ अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति ] [ग] हृदय 'बर्हि' तब कहलाता है जब इसमें से वासनाओं को उखाड़ फेंक दिया जाए और इसे तनिक विशाल बना लिया जाए। [घ] हमारे हृदयों में सभी के लिए स्नेह हो, परन्तु वह केवल शाब्दिक न होकर आर्थिक भी हो, अर्थात् हम दुःखी की सहायता के लिए कुछ-न-कुछ दें भी। प्रातः उठते ही हमारे अन्दर यज्ञिय कार्यों को करने की प्रवृत्ति हो । ४. उल्लिखित कामना करनेवाला ही 'प्रस्कण्व' मेधावी है। बुद्धिमान् पुरुष सदा ऐसा ही बनना चाहता है और वस्तुतः वही प्रार्थना 'श्रुत्कर्ण' प्रभु को प्रिय लगती है।

    भावार्थ - भावार्थ- हमारे हृदयों में स्नेह, दान व यज्ञोपस्थान की वृत्तियाँ हों।

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