यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 9
अ॒ग्निर्वृ॒त्राणि॑ जङ्घनद् द्रविण॒स्युर्वि॑प॒न्यया॑।समि॑द्धः शु॒क्रऽआहु॑तः॥९॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः। वृ॒त्राणि॑। ज॒ङ्घ॒न॒त्। द्र॒वि॒ण॒स्युः। विप॒न्यया॑। समि॑द्ध॒ इति॒ सम्ऽइ॑द्धः। शु॒क्रः। आहु॑त॒ इत्याऽहु॑तः ॥९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्वृत्राणि जङ्घनद्द्रविणस्युर्विपन्यया । समिद्धः शुक्र आहुतः ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निः। वृत्राणि। जङ्घनत्। द्रविणस्युः। विपन्यया। समिद्ध इति सम्ऽइद्धः। शुक्रः। आहुत इत्याऽहुतः॥९॥
विषय - अग्नि का वृत्रहनन
पदार्थ -
१. (अग्निः) = हमारी सब उन्नतियों के साधक वे प्रभु (वृत्राणि) = ज्ञान पर पर्दा डालनेवाली कामादि वासनाओं को (जंघनत्) = नष्ट करते हैं। जीव स्वयं वासना के विजय में समर्थ नहीं। प्रभु से मिलकर ही हम काम को जीत पाते हैं। २. यह वासना-विनाशरूप कार्य प्रभु करते तभी हैं जब (द्रविणस्युः) = द्रविण के चाहनेवाले प्रभु को हम अपने द्रविण की भेंट कर दें। अथर्ववेद का मन्त्र बड़ी सुन्दरता से कहता है कि यदि मोक्ष चाहते हो तो 'मह्यं दत्त्वा ' = यह द्रविण मुझे लौटा दो। हमने धन लौटाया और वासना-वृक्ष का मूल कटा। ३. प्रभु को धन लौटाकर हम वासनाओं को जीत पाते हैं, यदि उस प्रभु का स्मरण करते रहें (विपन्यया) = विशिष्ट स्तुति के द्वारा। इसी विशिष्ट स्तुति का स्वरूप मन्त्र के उत्तरार्ध में व्यक्त किया गया है [क] (समिद्धः) = दीप्त किया गया [ख] (शुक्रः) = [शुक गतौ] जाया गया [ग] (आहुतः) = अर्पण किया गया। [क] हम उस प्रभु की भावना को अपने हृदयों में दीप्त करें, उसका चिन्तन करें। योग के शब्दों में 'तज्जपस्तदर्थभावनम्' उसके नाम का जप और प्रणव के अर्थ का चिन्तन करें। [ख] इस प्रकार उस प्रभु का स्तवन करके उसकी ओर चलें, उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करें। मार्ग में आनेवाले विघ्नों को जीतकर उसकी ओर बढ़ते चलें। [ग] उसके समीप पहुँचकर उसके प्रति अपने को अर्पित कर दें। [घ] वासनाओं को नष्ट करके यह प्रभुभक्त अपने अन्दर शक्ति [वाज] का भरण [भरद्] करता है, अतः 'भरद्वाज' नामवाला हो जाता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करने का प्रयत्न करें, इसी उद्देश्य से धनों का यज्ञों में विनियोग करें, जिससे प्रभु हमपर आक्रमण करनेवाले वृत्रों का विनाश करें।
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