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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 20
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    अषा॑ढं यु॒त्सु पृत॑नासु॒ पप्रि॑ꣳ स्व॒र्षाम॒प्सां वृ॒जन॑स्य गो॒पाम्।भ॒रे॒षु॒जा सु॑क्षि॒तिꣳ सु॒श्रव॑सं॒ जय॑न्तं॒ त्वामनु॑ मदेम सोम॥२०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अषा॑ढम्। यु॒त्स्विति॑ यु॒त्ऽसु। पृत॑नासु। पप्रि॑म्। स्व॒र्षाम्। स्वःसामिति॑ स्वः॒ऽसाम्। अ॒प्साम्। वृ॒जन॑स्य। गो॒पाम् ॥ भ॒रे॒षु॒जामिति॑ भरेषु॒ऽजाम्। सु॒क्षि॒तिमिति॑ सुऽक्षि॒तिम्। सु॒श्रव॑स॒मिति॑ सु॒ऽश्रव॑सम्। जय॒न्तम्। त्वाम्। अनु॑ म॒दे॒म॒। सो॒म॒ ॥२० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अषाढँयुत्सु पृतनासु पप्रिँ स्वर्षामप्साँ वृजनस्य गोपाम् । भरेषुजाँ सुक्षितिँ सुश्रवसञ्जयन्तं त्वामनु मदेम सोम ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अषाढम्। युत्स्विति युत्ऽसु। पृतनासु। पप्रिम्। स्वर्षाम्। स्वःसामिति स्वःऽसाम्। अप्साम्। वृजनस्य। गोपाम्॥ भरेषुजामिति भरेषुऽजाम्। सुक्षितिमिति सुऽक्षितिम्। सुश्रवसमिति सुऽश्रवसम्। जयन्तम्। त्वाम्। अनु मदेम। सोम॥२०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 20
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    पदार्थ -
    १. (युत्सु अषाढम्) = युद्धों में पराभूत न होनेवाले मनुष्य की हृदयस्थली पर दैवी व आसुरी वृत्तियों का सतत युद्ध चलता है। इस निरन्तर चल रहे देवासुर संग्राम में न पराजित होनेवाले पुरुष को ही हम (अनुमदेम) = अनुमोदित करते हैं, अर्थात् 'आदमी' तो हम इसे ही मानते हैं । २. (पृतनासु पप्रिम्) [पृतना संग्रामनाम - नि० २।१७] संग्राम में अपना पालन व पूरण करनेवाले। अध्यात्मसंग्राम तो निरन्तर चलता है। समाज में भी संघर्ष आ जाते हैं। इन संघर्षों में यह अपना रक्षण करता है, जिससे कहीं रोगों व ईर्ष्यादि का शिकार न हो जाए। 'संघर्ष शक्ति पैदा करता है' 'Resistance creates power' इस नियम का ध्यान करता हुआ यह संग्रामों का स्वागत करता है। ३. (स्वर्षाम्) = [स्व: सन्] यह प्रकाश का सेवन करनेवाला होता है। 'स्वः' का अभिप्राय 'स्वर्ग' भी है, परन्तु यहाँ प्रकाश अर्थ ही अधिक उपयुक्त है। यह अपने अन्दर ज्ञान के प्रकाश को बढ़ाने के लिए यत्नशील होता है । ४. (अप्साम्) = [अप् सन्] उस ज्ञानप्रकाश के कारण ही यह सदा [आप्= व्याप्ति] व्यापक, स्वार्थ से ऊपर उठे हुए कर्मों का सेवन करनेवाला बनता है। ज्ञान इसे स्वार्थमय कामनाओं से ऊपर उठाता है और यह परार्थ की भावना से प्रेरित होकर व्यापक हित के कार्यों में लगा रहता है । ५. (वृजनस्य गोपाम्) = इस प्रकार परार्थ के कामों में लगा हुआ यह व्यक्ति कभी विषयासक्त नहीं बनता और बल का रक्षक होता है। [वृजनम्-बल- नि० २।९ ] ६. इसी सुरक्षित बल के कारण (भरेषुजाम्) = [ भरणीयेषु संग्रामेषु जेतारम् द०] यह संग्रामों में सदा विजयी होता है। [भरेषु जनयति] संग्रामों में यह अपनी शक्ति का प्रादुर्भाव करनेवाला होता है, कभी निराश नहीं होता। ७. (सुक्षितिम्) [क्षि निवासगत्योः] = संग्रामों में विजयी बनकर यह उत्तम निवास व गतिवाला होता है। ८. (सुश्रवसम्) = उत्तम कीर्तिवाला होता है ९. (जयन्तम्) = जीतता ही जीतता है, यह हारता नहीं । १०. इतना कुछ होने पर भी यह अभिमानी नहीं हो जाता, विनीत ही बना रहता है, अतः कहते हैं कि हे (सोम) = सब दिव्य गुणों से युक्त होकर भी विनीत बने हुए प्रशस्ततम इन्द्रियोंवाले 'गोतम' (त्वाम् अनुमदेम) = हम तुझे अनुमोदित करते हैं। [ We cheer you up ] आपके जीवन की हम प्रशंसा करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- 'गोतम'-प्रशस्तेन्द्रिय पुरुष के जीवन में उपर्युक्त दस बातें अवश्य होती हैं।

    - सूचना - अधिभौतिक अर्थ में 'ऐसे राजा को हम अनुमोदित करते हैं' यह अर्थ होगा। जो राजा युद्धों में पराजित नहीं होता, संग्रामों में सैनिकों की रक्षा करता है, राष्ट्र को स्वर्ग बनाता है, प्रजा को प्राप्य होता है, राष्ट्र की शक्ति की रक्षा करता है, संग्राम विजयी, उत्तम भूमिवाला, कीर्तिमान व सदा विजयी होता है। ऐसा होता हुआ भी अंहकार से दूर होता है।

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