यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 20
ऋषिः - लोपामुद्रा ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भुरिग् बृहती
स्वरः - मध्यमः
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नम॑स्ते॒ हर॑से शो॒चिषे॒ नम॑स्तेऽअस्त्व॒र्चिषे॑।अ॒न्याँस्ते॑ऽअ॒स्मत्त॑पन्तु हे॒तयः॑ पाव॒कोऽअ॒स्मभ्य॑ꣳशि॒वो भ॑व॥२०॥
स्वर सहित पद पाठनमः॑। ते॒। हर॑से। शो॒चिषे॑। नमः॑। ते॒। अ॒स्तु॒। अ॒र्चिषे॑ ॥ अ॒न्यान्। ते॒। अ॒स्मत्। त॒प॒न्तु॒। हे॒तयः॑। पा॒व॒कः। अ॒स्मभ्य॑म्। शि॒वः। भ॒व॒ ॥२० ॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्ते हरसे शोचिषे नमस्तेऽअस्त्वर्चिषे । अन्याँस्तेऽअस्मत्तपन्तु हेतयः पावको अस्मभ्यँ शिवो भव ॥
स्वर रहित पद पाठ
नमः। ते। हरसे। शोचिषे। नमः। ते। अस्तु। अर्चिषे॥ अन्यान्। ते। अस्मत्। तपन्तु। हेतयः। पावकः। अस्मभ्यम्। शिवः। भव॥२०॥
विषय - रोग, लोभ व अज्ञान का लोप
पदार्थ -
गतमन्त्र में दीर्घकाल तक प्रभु के सन्दर्शन में जीवन-यापन का उल्लेख था। ये प्रभु से कहते हैं। हरसे सब रोगों का हरण करनेवाले (ते) = तेरे लिए (नमः) = नमस्कार हो । संस्कृत में रोग का हरण करनेवाले वैद्य का नाम 'रोगहारी' है। वही 'हृ' धातु 'हरस्' शब्द में है। प्रभु के स्मरण से हम स्वादादि में नहीं फँसते, परिणामतः अधिक नहीं खाते और रोगों से बचे रहते हैं, एवं प्रभु सचमुच रोगों का हरण करनेवाले हैं । २. (शोचिषे) = [शुच् दीप्तौ] हमारे जीवनों को शुचि व दीप्त बनानेवाले (नम:) = आपके लिए नमस्कार है। प्रभु स्मरण हमारे शरीरों को नीरोग बनाता है तो प्रभु स्मरण से हमारे मन निर्मल व पवित्र होते हैं। प्रभु के सान्निध्य में हम पाप थोड़े ही करेंगे? वासना स्मर' है, तो प्रभु 'स्मरहर' हैं। जहाँ प्रभुस्मरण होता है वहाँ वासना का विनाश हो जाता है। ३. (अर्चिषे) = हमें ज्ञान की ज्वाला से देदीप्यमान करनेवाले (ते नमः) = तेरे लिए नमस्कार हो । प्रभु हमारे मस्तिष्कों को ज्ञान से दीप्त कर देते हैं। सम्पूर्ण ज्ञान के स्रोत वे प्रभु ही हैं। ४. वह व्यक्ति जो प्रभुकृपा से शरीर से नीरोग, मन से पवित्र तथा मस्तिष्क से दीप्त बना है, वह अब चाहता है कि (ते) = तेरी (हेतयः) = ज्ञानदीप्तियाँ (अस्मत्) = हमसे प्रवाहित होकर (अन्यान्) = दूसरों को भी (तपन्तु) = दीप्ति प्राप्त कराएँ। हम आपसे प्राप्त इन ज्ञान की किरणों को औरों तक पहुँचाएँ। ५. ब्रह्मचर्याश्रम में हम प्रभु को 'हरस्' के रूप में स्मरण करें और सोमशक्ति की ऊर्ध्वगति करके सब (रोगों का हरण व लोप करनेवाले) बनें। गृहस्थ में हमारा स्मरणीय प्रभु 'शोचिष्' है। वह हमारे मनों को शुचि बनाता है। ('योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिः') = [मनु] । धन की दृष्टि से शुचि व्यक्ति ही तो शुचि है। एवं प्रभु स्मरण हमारे मनों से (लोभ का लोप) करनेवाला हो । वानप्रस्थ में हमारा प्रभु 'अर्चिष्' हो जाता है। यह ज्ञान की ज्वाला से देदीप्यमान है। यह हमारे मस्तिष्क से अज्ञानान्धकार का लोप करता है। वानप्रस्थ तो ('स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्') = सदा स्वाध्याय में लगा होता है। इसके बाद संन्यास में यह अपने आराम आदि का त्याग कर प्रजा के अज्ञानान्धकर को लुप्त करने में लगा है, एवं इसका नाम ही 'रोग, लोभ व अज्ञान' को लुप्त करने के कारण 'लोपा' हो गया है। इसका चित्त इस रोग, लोभ व अज्ञान को लुप्त करके बड़ा प्रसन्न है, अतः वह 'मुद्रा' है। यह 'लोपामुद्रा' ही प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि है। ४. यह ऋषि प्रभु से प्रार्थना करता है कि (पावक:) = हे प्रभो! आप पवित्र करनेवाले हो । आप (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (शिवः) = कल्याण करनेवाले (भव) = होओ। 'लोपामुद्रा' अपने जीवन के निर्माण का ध्यान करता है और कल्याण के लिए याचना करता है।
भावार्थ - भावार्थ- हमारे शरीर नीरोग हों, मन शुचि हों, मस्तिष्क उज्ज्वल हों। हम सर्वत्र ज्ञान का प्रकाश फैलाएँ। प्रभु हमारा कल्याण करें।
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