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  • यजुर्वेद - अध्याय 38/ मन्त्र 5
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - वाग्देवता छन्दः - निचृदतिजगती स्वरः - निषादः
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    यस्ते॒ स्तनः॑ शश॒यो यो म॑यो॒भूर्यो र॑त्न॒धा व॑सु॒विद्यः सु॒दत्रः॑।येन॒ विश्वा॒ पुष्य॑सि॒ वार्य्या॑णि॒ सर॑स्वति॒ तमि॒ह धात॑वेऽकः।उ॒र्वन्तरि॑क्ष॒मन्वे॑मि॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः। ते॒। स्तनः॑। श॒श॒यः। यः। म॒यो॒भूरिति॑ मयः॒ऽभूः। यः॒। र॒त्न॒धा इति॑ रत्न॒ऽधाः। व॒सु॒विदिति॑ वसु॒ऽवित्। यः। सु॒दत्र॒ इति॑ सु॒ऽदत्रः॑ ॥ येन॑। विश्वा॑। पुष्य॑सि। वार्य्या॑णि। सर॑स्वति। तम्। इ॒ह। धात॑वे। अ॒क॒रित्य॑कः। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। अनु॑। ए॒मि॒ ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते स्तनः शशयो यो मयोभूर्या रत्नधा वसुविद्यः सुदत्रः । येन विश्वा पुष्यसि वार्याणि सरस्वत्तमिह धातवे कः । उर्वन्तरिक्षमन्वेमि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः। ते। स्तनः। शशयः। यः। मयोभूरिति मयःऽभूः। यः। रत्नधा इति रत्नऽधाः। वसुविदिति वसुऽवित्। यः। सुदत्र इति सुऽदत्रः॥ येन। विश्वा। पुष्यसि। वार्य्याणि। सरस्वति। तम्। इह। धातवे। अकरित्यकः। उरु। अन्तरिक्षम्। अनु। एमि॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 38; मन्त्र » 5
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    पदार्थ -
    १. पिछले मन्त्र में प्राण, ज्ञान व जितेन्द्रियता की साधना का उल्लेख हुआ है। उस साधना में सर्वप्रमुख सहायक वेदवाणी है। वेदवाणी को 'गौ' भी कहते हैं। इस वेदवाणीरूप गौ से मन्त्र का ऋषि 'दीर्घतमा' कहता है कि (य:) = जो (ते) = तेरा (स्तनः शशय:) = [शशयः शिश्यान :- नि०] हमारे जीवनों को प्लुतगतिवाला बनानेवाला है (तम्) = उसको (इह) = यहाँ (धातवे) = हमारे पीने के लिए (अक:) = कर, अर्थात् तेरा ज्ञान हमें क्रियाशील बनाये। २. हमें तू उस ज्ञान का पान करा जो (मयोभूः) = कल्याण उत्पन्न करनेवाला है। वस्तुतः क्रियाशीलता का ही परिणाम मंगल है। 'मंगल' शब्द 'मगि गतौ' धातु से बना है। गति में ही कल्याण है। अकर्मण्यता अकल्याण का कारण है। ३. उस स्तन को पिला (यः) = जो (रत्नधा) = हममें रमणीय वस्तुओं का धारण करनेवाला है। इस ज्ञान की वाणी को पीकर हमारे जीवन से सब बुराइयाँ समाप्त हो जाती हैं और हमारा जीवन रमणीय बन जाता है। ४. हमें उस स्तन का पान करा जो वसुवित्-निवास के लिए आवश्यक सब वस्तुओं को प्राप्त कराता है। इस ज्ञान की वाणी से हम वसुओं को प्राप्त करने की क्षमतावाले होते हैं । ५. यह वेदवाणी का स्तन तो हमारे लिए (सुदत्र:) = सब उत्तम वस्तुओं को [सु] देकर [द] हमारी रक्षा करनेवाला है । ६. हे (सरस्वति) = ज्ञान की अधिष्ठात्री देवि ! (येन) = जिस अपने स्तन से तू (विश्वा) = सब वार्याणि वरणीय, उत्तम वसुओं का पुष्यसि -पोषण करती है उस स्तन को तू हमें पिलानेवाली हो। ७. तेरे इस स्तन का पान करके मैं उरु (अन्तरिक्षम्) = विशाल हृदयान्तरिक्ष को (अन्वेमि) = प्राप्त होता हूँ। इस ज्ञान से मेरा सारा व्यवहार विशाल हृदय के अनुकूल होता है, मेरे व्यवहार में संकुचित-हृदयता नहीं टपकती।

    भावार्थ - भावार्थ-वेदवाणीरूप गौ के स्तन का पान करके मैं 'क्रियाशील, मंगलमय, ज्ञनसम्पन्न, व वसुमान्' बनता हूँ। सब वरणीय वसुओं को प्राप्त करता हूँ और विशाल हृदय बनता हूँ। सूचना - वेद की शिक्षा मनुष्य को कहती है १. 'मनुर्भव' तू मनु बन, समझदार बन २. 'माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः ' भूमि को अपनी माता समझ । भूमि के एकदेश को अपनाकर तू देशभक्ति के नाम पर भी संकुचित हृदय मत बन । वस्तुत: यही मनुष्य दीर्घतमा = अज्ञान को विदीर्ण करनेवाला होता है।

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