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  • यजुर्वेद - अध्याय 40/ मन्त्र 17
    ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः देवता - आत्मा देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    हि॒र॒ण्मये॑न॒ पात्रे॑ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुखम्।यो॒ऽसावा॑दि॒त्ये पु॑रुषः॒ सोऽसाव॒हम्। ओ३म् खं ब्रह्म॑॥१७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒र॒ण्मये॑न॒। पात्रे॑ण। स॒त्यस्य॑। अपि॑हित॒मित्यपि॑ऽहितम्। मुख॑म् ॥ यः। अ॒सौ। आ॒दि॒त्ये। पुरु॑षः। सः। अ॒सौ। अ॒हम्। ओ३म्। खम्। ब्रह्म॑ ॥१७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । यो सावादित्ये पुरुषः सो सावहम् । ओ३म् खं ब्रह्म ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्मयेन। पात्रेण। सत्यस्य। अपिहितमित्यपिऽहितम्। मुखम्॥ यः। असौ। आदित्ये। पुरुषः। सः। असौ। अहम्। ओ३म्। खम्। ब्रह्म॥१७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 40; मन्त्र » 17
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    पदार्थ -
    'मनुष्य क्यों कुटिलता व पाप से धन कमाने लगता है?' इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र में इस प्रकार दिया है कि (हिरण्मयेन पात्रेण) = स्वर्ण के बने देदीप्यमान पात्र से (सत्यस्य) = सत्य का (मुखम्) = स्वरूप (अपिहितम्) = ढका हुआ है। यह संसार की सीपी [ शुक्ति] चमकती है और हम इसे चाँदी समझ बैठते हैं, विषयों की आपात रमणीयता से उनका पर्यन्तपरितापित्व छिपा रहता है। विष का माधुर्य उसके विषत्व को विस्मृत करा देता है। संसार चमकता है और उस चमक को ही हम सत्य मान लेते हैं। हमें यह जनश्रुति भूल जाती है कि " All that glitters is not gold." मन्त्र कहता है कि यह चमक उस वस्तु की नहीं। अपने शरीर को ही देखो। यहाँ कब तक चमक है? जब तक अन्दर आत्मा है। आत्मा गई और यह आभाशून्य होकर विश्लिष्ट [Disintigrated] व दुर्गन्धित होने लगा। इसी प्रकार सूर्य आदि में चमक अन्तःस्थित पुरुष [परमात्मा] के ही कारण है। यह सूर्यादि की अपनी चमक नहीं । (यः) = जो (असौ) = वह (आदित्ये) = सूर्यमण्डल में (पुरुषः) = अधिष्ठातृरूपेण स्थित पुरुष है (सः) = वह पुरुष (असौ) = तेरे प्राणों में भी है [असवः प्राणाः], अर्थात् क्या सूर्य की चमक और क्या तेरे इस छोटे से पिण्ड की चमक ये सब उस अन्तःस्थ पुरुष की चमक है। यह इनकी अपनी चमक नहीं। संसार में सर्वत्र उस पुरुष ही की चमक है। ये प्राकृतिक पदार्थ अपने में निष्प्रभ हैं। प्रभु कहते हैं कि इन पदार्थों को प्रभा देनेवाला वह पुरुष ही (अहम्) = मैं हूँ। (खम् ब्रह्म) = आकाश की तरह मैं बढ़ा हुआ व्यापक हूँ। मेरी व्याप्ति से ही प्रकृति में दीप्ति है। हे जीव ! इस दीप्ति को प्रकृति समझकर तू उसमें न उलझ । यदि तू इसमें नहीं उलझेगा तो धन को छल छिद्र से जुटाने के लिए तू लालायित भी क्यों होगा ? तेरा अज्ञानान्धकार दूर हो जाएगा। तू 'दीर्घ-तम' बन जाएगा।

    भावार्थ - भावार्थ - सांसारिक चमक से हमारी आँखें चुँधियाँ न जाएँ, तभी हम सत्य को देख पाएँगे।

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