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  • यजुर्वेद - अध्याय 5/ मन्त्र 24
    ऋषिः - औतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः देवता - सूर्यविद्वांसौ देवते छन्दः - भूरिक् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    स्व॒राड॑सि सपत्न॒हा स॑त्र॒राड॑स्यभिमाति॒हा ज॑न॒राड॑सि रक्षो॒हा स॑र्व॒राड॑स्यमित्र॒हा॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्व॒राडिति॑ स्व॒ऽराट्। अ॒सि॒। स॒प॒त्न॒हेति॑ सपत्न॒ऽहा। स॒त्र॒राडिति॑ सत्र॒ऽराट्। अ॒सि॒। अ॒भि॒मा॒ति॒हेत्य॑भिमाति॒ऽहा। ज॒न॒राडिति॑ जन॒ऽराट्। अ॒सि॒। र॒क्षो॒हेति॑ रक्षः॒ऽहा। स॒र्व॒राडिति॑ सर्व॒ऽराट्। अ॒सि॒। अ॒मि॒त्र॒हेत्य॑मित्र॒ऽहा ॥२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वराडसि सपत्नहा सत्रराडस्यभिमातिहा जनराडसि रक्षोहा सर्वराडस्यमित्रहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वराडिति स्वऽराट्। असि। सपत्नहेति सपत्नऽहा। सत्रराडिति सत्रऽराट्। असि। अभिमातिहेत्यभिमातिऽहा। जनराडिति जनऽराट्। असि। रक्षोहेति रक्षःऽहा। सर्वराडिति सर्वऽराट्। असि। अमित्रहेत्यमित्रऽहा॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 5; मन्त्र » 24
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    पदार्थ -

    १. गत मन्त्र के अनुसार वासना का उच्छेद करनेवाला यह ‘दीर्घतमा’ प्रभु का प्रिय बनता है। प्रभु इससे कहते हैं कि तू अपने इस जीवन के प्रथम प्रयाण में ( स्वराट् असि ) = स्वराट् है, अपना शासन करनेवाला बना है [ स्व = अपना, राज् = regulate ] तूने अपने जीवन को बड़ा नियमित बनाया है। ( सपत्नहा ) = तूने ‘काम, क्रोध, लोभ, मोह व मद-मत्सर’ इन सब शत्रुओं का हनन किया है। 

    २. जीवन के दूसरे प्रयाण में तू ( सत्रराट् असि ) = यज्ञों से दीप्त होनेवाला बना है, यज्ञों से तेरी कीर्ति चारों ओर फैली है और ( अभिमातिहा ) = तूने अभिमानरूप शत्रु का संहार किया है। 

    ३. अब जीवन की तृतीय मंजिल में ( जनराट् असि ) =  तू अपने विकास से चमकनेवाला हुआ है [ जनध् = प्रादुर्भाव, विकास, evolution ] और ( रक्षोहा ) = सब रोगकृमियों का या राक्षसी वृत्तियों का हनन करनेवाला है। शरीर से भी नीरोग रहता है और मन से भी प्रसादमय रहता है। 

    ४. इस प्रकार ( ‘सर्वराट् असि’ ) = तू सर्वव्यापक होने से ‘सर्व’ नामवाले प्रभु से चमकनेवाला बना है। उसको सदा हृदय में धारण करने से तेरा चेहरा ब्रह्मवर्चस् की दीप्ति से चमकता है और तू ( अमित्रहा ) = अस्नेह की भावना को समाप्त करनेवाला हुआ है। तेरा सबके प्रति प्रेम है। सारी वसुधा तेरा कुटुम्ब बन गई है। सभी तेरी मैं में समाविष्ट हो गये हैं और तू भी अपने उपास्य की तरह ‘सर्व’ बन गया है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हमें क्रमशः ‘स्वराट्, सत्रराट् व जनराट्’ बनकर सर्वराट् बनना है।

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