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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - आपो देवता छन्दः - प्राजापत्या बृहती,भूरिक् आर्षी गायत्री स्वरः - मध्यमः
    1

    अ॒पां पे॒रुर॒स्यापो॑ दे॒वीः स्व॑दन्तु स्वा॒त्तं चि॒त्सद्दे॑वह॒विः। सं ते॑ प्रा॒णो वाते॑न गच्छता॒ꣳ समङ्गा॑नि॒ यज॑त्रैः॒ सं य॒ज्ञप॑तिरा॒शिषा॑॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पाम्। पे॒रुः। अ॒सि॒। आपः॑। दे॒वीः। स्व॒द॒न्तु॒। स्वा॒त्तम्। चि॒त्। सत्। दे॒व॒ह॒विरिति॑ देवऽह॒विः। सम्। ते॒। प्रा॒णः। वाते॑न। ग॒च्छ॒ता॒म्। अङ्गा॑नि। यज॑त्रैः। यज्ञप॑तिरिति॑ य॒ज्ञऽपतिः। आ॒शिषेत्या॒ऽशिषा॑ ॥१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाम्पेरुरस्यापो देवीः स्वदन्तु स्वात्तञ्चित्सद्देवहविः । सन्ते प्राणो वातेन गच्छताँ समङ्गानि यजत्रैः सँयज्ञपतिराशिषा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अपाम्। पेरुः। असि। आपः। देवीः। स्वदन्तु। स्वात्तम्। चित्। सत्। देवहविरिति देवऽहविः। सम्। ते। प्राणः। वातेन। गच्छताम्। अङ्गानि। यजत्रैः। यज्ञपतिरिति यज्ञऽपतिः। आशिषेत्याऽशिषा॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 10
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    पदार्थ -

    १. पिछले मन्त्र में यह भावना थी कि हम अपने को ऋत के पाश से बाँधते हैं—तेजस्वी व शान्त बनते हैं। ऋत के पाश से अपने को बाँधनेवाला ही प्रस्तुत मन्त्र के अनुसार ( अपां पेरुः असि ) = वीर्य का रक्षक है [ आपः रेतो भूत्वा० ]। ‘आपः’ शब्द रेतस् का वाचक है। जीवन के व्रती होने पर और भोजन के सात्त्विक होने पर शरीर में सोम का धारण सुगम होता है। यह ‘मेधातिथि’ = समझदारी से चलनेवाला व्यक्ति सबसे अधिक महत्त्व इसी बात को देता है कि वह ‘अपां पेरु’—वीर्य का रक्षक हो। 

    २. इसी उद्देश्य से प्रभु मेधातिथि से कहते हैं कि ( आपः देवीः स्वदन्तु ) = ये दिव्य गुणवाले जल तेरे लिए स्वादिष्ट हों। ( सत् ) = उत्तम ( देवहविः ) = देवों द्वारा खाये जानेवाले हव्य पदार्थ ( चित् ) = ही ( स्वात्तम् ) =  [ आस्वादितम्—म० ] तेरे से स्वाद लिये जाएँ, अर्थात् तू सात्त्विक वानस्पतिक भोजनों को ही खानेवाला बन। 

    ३. इस प्रकार जलों व वानस्पतिक भोजनों के सेवन से ( ते प्राणः ) = तेरा यह प्राण ( वातेन ) = वायु से ( सङ्गच्छताम् ) =  सङ्गत हो। ‘वातः प्राणो भूत्वा०’ वायु ही प्राण का रूप धारण करके शरीर में रहती है। तेरे शरीरस्थ प्राणों का इस वायु से सङ्गमन [ मेल ] हो, विरोध न हो। वायु तेरे अनुकूल हो और यह वायु तुझमें प्राणशक्ति का सञ्चार कर दे। 

    ४. ( अङ्गानि ) = तेरे सब अङ्ग ( यजत्रैः ) = यज्ञों द्वारा त्राण करनेवाले देवों के साथ ( सम् ) [ गच्छन्ताम् ] =  सङ्गत हों, अर्थात् तेरे सब अङ्गों में दिव्यता का सञ्चार हो। 

    ५. और यह प्राणशक्ति सम्पन्न दिव्यतापूर्ण अङ्गोंवाला ( यज्ञपतिः ) = यज्ञ का पालक ‘मेधातिथि’ ( सम् आशिषा ) = शुभ इच्छाओं से सङ्गत हो, सदा उत्तम इच्छाओंवाला हो।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम वीर्यरक्षा के लिए खान-पान को सात्त्विक बनाएँ। हमारी प्राणशक्ति ठीक हो, हमारे सब अङ्ग दिव्यतापूर्ण हों। हमारी इच्छाएँ उत्तम हों।

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