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  • यजुर्वेद - अध्याय 6/ मन्त्र 14
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - विद्वांसो देवता छन्दः - भूरिक् आर्षी जगती, स्वरः - निषादः
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    वाचं॑ ते शुन्धामि प्रा॒णं ते॑ शुन्धामि॒ चक्षुस्॑ते शुन्धामि॒ श्रोत्रं॑ ते शुन्धामि॒ नाभिं॑ ते शुन्धामि॒ मेढ्रं॑ ते शुन्धामि पा॒युं ते॑ शुन्धामि च॒रित्राँ॑स्ते शुन्धामि॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वाच॑म्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। प्रा॒णम्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। चक्षुः॑। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। श्रोत्र॑म्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। नाभि॑म्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। मेढ्र॑म्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। पा॒युम्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒। च॒रित्रा॑न्। ते॒। शु॒न्धा॒मि॒ ॥१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाचन्ते शुन्धामि प्राणन्ते शुन्धामि चक्षुस्ते शुन्धामि श्रोत्रन्ते शुन्धामि नाभिन्ते शुन्धामि मेढ्र्रन्ते शुन्धामि पायुन्ते शुन्धामि चरित्राँस्ते शुन्धामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वाचम्। ते। शुन्धामि। प्राणम्। ते। शुन्धामि। चक्षुः। ते। शुन्धामि। श्रोत्रम्। ते। शुन्धामि। नाभिम्। ते। शुन्धामि। मेढ्रम्। ते। शुन्धामि। पायुम्। ते। शुन्धामि। चरित्रान्। ते। शुन्धामि॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 6; मन्त्र » 14
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    पदार्थ -

    ‘आचार्य विद्यार्थी के जीवन का किस प्रकार शोधन करता है?’ इस विषय को प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि— १. ( ते वाचं शुन्धामि ) = [ आचार्य विद्यार्थी से कहता है कि ] मैं तेरी वाणी को शुद्ध करता हूँ, जिससे तू इस वाणी को असत्यभाषण से अपवित्र करनेवाला न हो। तेरी वाणी सत्य से सदा पवित्र बनी रहे। 

    २. ( ते प्राणं शुन्धामि ) = मैं तेरी घ्राणेन्द्रिय को शुद्ध करता हूँ, जिससे तू घ्राणेन्द्रिय से कृत्रिम गन्धों के प्रति आसक्त न हो जाए। 

    ३. ( ते चक्षुः शुन्धामि ) = तेरी आँख को शुद्ध करता हूँ, जिससे तू पवित्र दृष्टि से देखनेवाला बने। स्त्रियों में मातृभावना, परद्रव्यों में लोष्ठभावना, सर्वप्राणियों में आत्मभावना से तू देखनेवाला हो। हिमाच्छादित पर्वतों, समुद्रों, विशाल पृथिवी व आकाश के तारों में तू प्रभु की महिमा को देखे। 

    ४. ( ते श्रोत्रं शुन्धामि ) = तेरे कान को शुद्ध करता हूँ, जिससे तू इन कानों से अभद्र बातों को न सुनता रहे। तुझे निन्दा की बातें सुनने में स्वाद ने आये। 

    ५. ( नाभिं ते शुन्धामि ) = मैं तेरी नाभि को पवित्र करता हूँ, जिससे तेरा जीवन संयम के बन्धन में बँधकर चले। 

    ६. ( ते मेढ्रं शुन्धामि ) = तेरी उपस्थेन्द्रिय को शुद्ध करता हूँ, जिससे तू ब्रह्मचर्य का जीवन बिताते हुए मूत्र-सम्बन्धी सब रोगों से बचा रहे। 

    ७. ( ते पायुं शुन्धामि ) = तेरी मलशोधक इन्द्रिय को शुद्ध करता हूँ, जिससे ठीक मल-शोधन होते रहकर तू रोगों से बचा रहे। 

    ८. ( ते चरित्रान् शुन्धामि ) = तेरे पाँवों को शुद्ध करता हूँ, जिससे तेरे चरित्र [ चाल-ढाल ] सदा ठीक बने रहें।

    भावार्थ -

    भावार्थ — आचार्य विद्यार्थी के जीवन को परिशुद्ध कर डालता है।

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