यजुर्वेद - अध्याय 7/ मन्त्र 26
ऋषिः - देवश्रवा ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - स्वराट् ब्राह्मी बृहती
स्वरः - मध्यमः
2
यस्ते॑ द्र॒प्स स्कन्द॑ति॒ यस्ते॑ऽअ॒ꣳशुर्ग्राव॑च्युतो धि॒षण॑योरु॒पस्था॑त्। अ॒ध्व॒र्योर्वा॒ परि॑ वा॒ यः प॒वित्रा॒त्तं ते॑ जुहोमि॒ मन॑सा॒ वष॑ट्कृत॒ꣳ स्वाहा॑ दे॒वाना॑मुत्क्रम॑णमसि॥२६॥
स्वर सहित पद पाठयः। ते॒। द्र॒प्सः। स्कन्द॑ति। यः। ते॒। अ॒ꣳशुः। ग्राव॑च्युत॒ इति॒ ग्राव॑ऽच्युतः। धि॒षण॑योः। उ॒पस्था॒दित्यु॒पऽस्था॑त्। अ॒ध्व॒र्य्योः। वा॒। परि॑। वा॒। यः। प॒वित्रा॑त्। तम्। ते॒। जु॒हो॒मि॒। मन॑सा। वष॑ट्कृत॒मिति॒ वष॑ट्ऽकृतम्। स्वाहा॑। दे॒वाना॑म्। उ॒त्क्रम॑ण᳖मित्यु॒त्ऽक्रम॑णम्। अ॒सि॒ ॥२६॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते द्रप्स स्कन्दति यस्ते अँशुर्ग्रावच्युतो धिषणयोरुपस्थाति अध्वर्यार्वा परि वा यः पवित्रात्तन्जुहोमि मनसा वषट्कृतँ स्वाहा देवानामुत्क्रमणमसि ॥
स्वर रहित पद पाठ
यः। ते। द्रप्सः। स्कन्दति। यः। ते। अꣳशुः। ग्रावच्युत इति ग्रावऽच्युतः। धिषणयोः। उपस्थादित्युपऽस्थात्। अध्वर्य्योः। वा। परि। वा। यः। पवित्रात्। तम्। ते। जुहोमि। मनसा। वषट्कृतमिति वषट्ऽकृतम्। स्वाहा। देवानाम्। उत्क्रमणमित्युत्ऽक्रमणम्। असि॥२६॥
विषय - देवों का उत्क्रमण
पदार्थ -
१. गत मन्त्र में प्रभु को हृदय में उतारने का वर्णन था। प्रभु का यह अवतरण सोमरक्षा से ही हो सकता है, अतः प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि हे ( द्रप्स ) = सोम! ( यः ) = जो ( ते ) = तेरा ( अंशुः ) = छोटा-सा भी कण [ small particle ] ( स्कन्दति ) = ऊर्ध्वगतिवाला होता है [ ascends ] और ऊर्ध्वगतिवाला होकर जो तेरा कण ( ग्रावच्युतः ) = [ प्राणाः वै ग्रावाणः श० च्युत् = सेचन ] प्राणों का सेचन करनेवाला है। ( तम् ) = उस कण को ( धिषणयोः ) = द्यावापृथिवी के निमित्त अर्थात् मस्तिष्क व शरीर के विकास के लिए तथा ( उपस्थात् ) = जननेन्द्रिय के स्वास्थ्य के हेतु से ( वा ) = अथवा ( अध्वर्योः ) = अध्वर्यु के ( पवित्रात् ) = पवित्र हृदय के उद्देश्य से ( ते ) = तेरे अन्दर ( परिजुहोमि ) = सारे शरीर में आहुत करता हूँ। इस सोमकण को शरीर में ही व्याप्त करता हूँ।
२. यह सोमकण ( मनसा ) = मन से ( वषट्कृतम् ) = शरीर में आहुति दिया जाता है, अर्थात् मनोनिरोध ही एक उपाय है जिससे यह सोम शरीर से पृथक् नहीं होता।
३. ( स्वाहा ) = [ सुहु ] शरीर में सुहुत हुआ-हुआ यह सोम ( देवानाम् ) = देवों का, दिव्य गुणों का, ( उत् क्रमणम् ) = ऊर्ध्वगति—उन्नति करनेवाला ( असि ) = होता है।
प्रभु ने शरीर में सोम की स्थापना इसलिए की है कि यह [ क ] सारे शरीर में प्राणशक्ति का सेचन करता है। [ ख ] मस्तिष्क को दीप्त करता है। [ ग ] शरीर को दृढ़ बनाता है। [ घ ] जननेन्द्रिय को स्वस्थ करता है। [ ङ ] हृदय को पवित्र व हिंसावृत्तिशून्य करता है और अन्त में [ च ] देवताओं के उत्थान का कारण बनता है।
इस सोमरक्षा से देवताओं का उत्थान करनेवाला यह ‘देवश्रवाः’ बनता है, देवताओं के निमित्त कीर्तिवाला।
भावार्थ -
भावार्थ — हम सोम की रक्षा करें, जिससे हममें प्राणशक्ति की वृद्धि हो और दिव्य गुणों का विकास हो।
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