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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 15
    ऋषिः - अत्रिर्ऋषिः देवता - गृहपतिर्देवता छन्दः - भूरिक् आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    8

    समि॑न्द्र णो॒ मन॑सा नेषि॒ गोभिः॒ सꣳ सू॒रिभि॑र्मघव॒न्त्सꣳ स्व॒स्त्या। सं ब्रह्म॑णा दे॒वकृ॑तं॒ यदस्ति॒ सं दे॒वाना॑ सुम॒तौ य॒ज्ञिया॑ना॒ स्वाहा॑॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। इ॒न्द्र॒। नः॒। मन॑सा। ने॒षि॒। गोभिः॑। सम्। सू॒रिभि॒रिति॑ सू॒रिऽभिः॑। म॒घ॒व॒न्निति॑ मघऽवन्। सम्। स्व॒स्त्या। सम्। ब्रह्म॑णा। दे॒वकृ॑त॒मिति॑ दे॒वऽकृ॑तम्। यत्। अस्ति॑। सम्। दे॒वाना॑म्। सु॒म॒ताविति॑ सुऽम॒तौ। य॒ज्ञियाना॑म्। स्वाहा॑ ॥१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिन्द्र णो मनसा नेषि गोभिः सँ सूरिभिर्मघवन्त्सँ स्वस्त्या । सम्ब्रह्मणा देवकृतँयदस्ति सन्देवानाँ सुमतौ यज्ञियानाँ स्वाहा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। इन्द्र। नः। मनसा। नेषि। गोभिः। सम्। सूरिभिरिति सूरिऽभिः। मघवन्निति मघऽवन्। सम्। स्वस्त्या। सम्। ब्रह्मणा। देवकृतमिति देवऽकृतम्। यत्। अस्ति। सम्। देवानाम्। सुमताविति सुऽमतौ। यज्ञियानाम्। स्वाहा॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 15
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    पदार्थ -

    उसी प्रकरण में कहते हैं कि १. हे ( इन्द्र ) = सब शत्रुओं का विदारण करनेवाले प्रभो! आप ( नः ) = हमें ( मनसा ) = प्रशस्त मननशील मन से ( संनेषि ) = सम्यक्तया सङ्गत करते हैं। सात्त्विक आहार के द्वारा हमारा मन पवित्र होता है। 

    २. ( गोभिः ) = [ गावः इन्द्रियाणि ] उत्तम इन्द्रियों से आप हमें ( संनेषि ) = सङ्गत करते हो। 

    ३. हे ( मघवन् ) = ऐश्वर्यवन्! अथवा इन ऐश्वर्यों से विविध यज्ञों [ मघ = मख ] को सिद्ध करनेवाले प्रभो! आप हमें ( सूरिभिः ) = विद्वानों के साथ ( सं ) = सङ्गत करते हो। इन विद्वानों के सम्पर्क से ही हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ उत्तमोत्तम ज्ञानों को प्राप्त कराके हमें उत्तम मननशील मनवाला बनाती है और इस प्रकार ४. ( स्वस्त्या संनेषि ) = आप हमें उत्तम— कल्याणमय जीवन से सङ्गत करते हैं। 

    ५. इस उत्तम जीवन के लिए ( ब्रह्मणा ) = उस ज्ञान से हमें ( सम् ) = सङ्गत करते हैं ( यत् ) = जो ज्ञान ( देवकृतम् ) = महादेव आपसे सृष्टि के प्रारम्भ में अग्नि आदि ऋषियों के हृदय में ( अस्ति ) = प्रकाशित किया गया है। या जो ज्ञान विद्वान् ऋषि-मुनियों से दिया गया है। 

    ६. हे प्रभो ! आप ऐसी कृपा करो, जिससे हम सात्त्विक आहार से सात्त्विक रुचिवाले बनें और आप हमें ( यज्ञियानाम् ) = [ यज्ञसम्पादिनाम् ] यज्ञों का सम्पादन करनेवाले ( देवानाम् ) = देवों की ( सुमतौ ) = कल्याणी मति में ( संनेषि ) = सङ्गत कीजिए। 

    ७. हे प्रभो! इस सबके लिए हम ( स्वाहा ) = आपके प्रति अपना अर्पण करते हैं अथवा स्वादादि की स्वार्थवृत्तियों को छोड़ते हैं।

    भावार्थ -

    भावार्थ — सात्त्विक आहार के द्वारा प्रभु हमारी रुचि को ही परिवर्तित कर देते हैं और हम विद्वानों—यज्ञिय देवों के सम्पर्क में रहकर अपने जीवनों को उत्तम बना पाते हैं। देवों की कल्याणी मति में रहते हुए हम ‘काम-क्रोध-लोभ’ से ऊपर उठते हैं। हमारा मन उत्तम होता है, कामादि तीनों से शून्य होने के कारण हम ‘अ-त्रि’ होते हैं।

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