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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1003
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम -
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अ꣢सि꣣ हि꣡ वी꣢र꣣ से꣢꣫न्योऽसि꣣ भू꣡रि꣢ पराद꣣दिः꣢ । अ꣡सि꣢ द꣣भ्र꣡स्य꣢ चिद्वृ꣣धो꣡ यज꣢꣯मानाय शिक्षसि सुन्व꣣ते꣡ भूरि꣢꣯ ते꣣ व꣡सु꣢ ॥१००३॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡सि꣢꣯ । हि । वी꣣र । से꣡न्यः꣢꣯ । अ꣡सि꣢꣯ । भू꣡रि꣢꣯ । प꣣राददिः꣢ । प꣣रा । ददिः꣢ । अ꣡सि꣢꣯ । द꣣भ्र꣡स्य꣢ । चि꣣त् । वृधः꣢ । य꣡ज꣢꣯मानाय । शि꣣क्षसि । सुन्वते꣢ । भू꣡रि꣢꣯ । ते । व꣡सु꣢꣯ ॥१००३॥


स्वर रहित मन्त्र

असि हि वीर सेन्योऽसि भूरि पराददिः । असि दभ्रस्य चिद्वृधो यजमानाय शिक्षसि सुन्वते भूरि ते वसु ॥१००३॥


स्वर रहित पद पाठ

असि । हि । वीर । सेन्यः । असि । भूरि । पराददिः । परा । ददिः । असि । दभ्रस्य । चित् । वृधः । यजमानाय । शिक्षसि । सुन्वते । भूरि । ते । वसु ॥१००३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1003
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

१. प्रभु ‘गोतमराहूगण' प्रशस्तेन्द्रिय त्यागशील व्यक्ति से कहते हैं कि हे (वीर) = शत्रुओं को विशेषरूप से कम्पित करनेवाले ! तू हि निश्चय से (सेन्यः) = [इनेन सहिताः सेनाः, तेषु साधु] प्रभु के साथ सम्पर्क रखनेवालों में उत्तम असि है । वस्तुतः प्रातः सायं प्रभु का स्मरण करने के कारण ही तो यह वीर है । २. प्रभु-सम्पर्क जनित बल से (पराददिः असि) = शत्रुओं का पराजेता व दूर भगानेवाला है। ३. प्रभु के सम्पर्क के कारण ही (दभ्रस्य) = अल्प का (चित्) = भी (वृधः असि) = बढ़ानेवाला है। हृदय जोकि सामान्यतः तंग-सा होता है, प्रभु-स्मरण से विशाल बन जाता है । ४. हृदय के विशाल बनने पर तू (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए तथा (सुन्वते) = निर्माणात्मक कार्यों में लगे हुए पुरुष के लिए ते वसु-अपने धन को भूरि (शिक्षसि) = खूब और खूब ही देता है । 

भावार्थ -

प्रभु-सम्पर्क में रहते हुए हम शत्रुओं के पराजेता बनें ।

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