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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1014
ऋषिः - त्रित आप्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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उ꣡प꣢ त्रि꣣त꣡स्य꣢ पा꣣ष्यो꣢३꣱र꣡भ꣢क्त꣣ य꣡द्गुहा꣢꣯ प꣣द꣢म् । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ स꣣प्त꣡ धाम꣢꣯भि꣣र꣡ध꣢ प्रि꣣य꣢म् ॥१०१४॥

स्वर सहित पद पाठ

उ꣡प꣢꣯ । त्रि꣣त꣡स्य꣢ । पा꣣ष्योः꣢ । अ꣡भ꣢꣯क्त । यत् । गु꣡हा꣢꣯ । प꣡द꣢म् । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । स꣣प्त꣢ । धा꣡म꣢꣯भिः । अ꣡ध꣢꣯ । प्रि꣣य꣢म् ॥१०१४॥


स्वर रहित मन्त्र

उप त्रितस्य पाष्यो३रभक्त यद्गुहा पदम् । यज्ञस्य सप्त धामभिरध प्रियम् ॥१०१४॥


स्वर रहित पद पाठ

उप । त्रितस्य । पाष्योः । अभक्त । यत् । गुहा । पदम् । यज्ञस्य । सप्त । धामभिः । अध । प्रियम् ॥१०१४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1014
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

(त्रितस्य) = काम, क्रोध, लोभ को जो तैर गया है [तीर्णस्य]; अथवा दया, दान व दम का जिसने विस्तार किया है [त्रीन् तनोति]; प्राणापान के उस पुरुष की (पाष्योः) = [पष् बन्धने] चित्तवृत्ति के बाँधनेवाले होने पर (यत्) = जब मनुष्य का मन (गुहा) = हृदयरूप गुहा में (पदम्) = [पद्यते मुनिभिर्यस्मात् तस्मात् पदमुदाहृतः] उस गन्तव्य प्रभु का (उप) - समीपता से सेवन करता है और (यज्ञस्य) = [ यज्ञो वै विष्णुः] संगतीकरण के योग्य प्रभु के (सप्त धामभिः) = सात स्थानों से, योग की सात भूमिकाओं से आगे बढ़ता हुआ (अध) = अब (प्रियम्) = उस प्रीणित करनेवाले प्रभु को अभक्त प्राप्त करता है।

प्रभु को प्राप्त करने के कारण ही इसका नाम 'आप्त्य' = प्राप्त करनेवालों में उत्तम पड़ गया है, त्रित तो यह है ही। उल्लिखित मन्त्रार्थ में 'त्रितस्य' शब्द योगमार्ग के पहले दो अङ्गों का ‘यमनियम' का संकेत करता है। ‘पाष्योः’ शब्द प्राणायाम की सूचना दे रहा है। ‘गुहा' शब्द चित्तवृत्ति के मन में लौटाने, अर्थात् 'प्रत्याहार' = का संकेत देता है । 'सप्त धामभिः' योग की सातों भूमिकाओं को पार करके ही तो प्रभु - दर्शन होता है 

भावार्थ -

हम त्रित बनें, प्राणापान की साधना से चित्तवृत्ति को हृदय में ही बाँधें, जिससे अन्त में उस प्रिय प्रभु को पा सकें ।

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