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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1040
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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म꣣हा꣡न्तं꣢ त्वा म꣣ही꣡रन्वापो꣢꣯ अर्षन्ति꣣ सि꣡न्ध꣢वः । य꣡द्गोभि꣢꣯र्वासयि꣣ष्य꣡से꣢ ॥१०४०॥

स्वर सहित पद पाठ

म꣣हा꣡न्त꣢म् । त्वा꣣ । महीः꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । आ꣡पः꣢꣯ । अ꣣र्षन्ति । सि꣡न्ध꣢꣯वः । यत् । गो꣡भिः꣢꣯ । वा꣣सयिष्य꣡से꣢ ॥१०४०॥


स्वर रहित मन्त्र

महान्तं त्वा महीरन्वापो अर्षन्ति सिन्धवः । यद्गोभिर्वासयिष्यसे ॥१०४०॥


स्वर रहित पद पाठ

महान्तम् । त्वा । महीः । अनु । आपः । अर्षन्ति । सिन्धवः । यत् । गोभिः । वासयिष्यसे ॥१०४०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1040
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 4
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पदार्थ -

१. (महान्तं त्वा) = महान्, अर्थात् विशाल हृदयवाले तुझे २. (मही: आपः) = महनीय कर्म तथा उन कर्मों के (अनु) = पश्चात्, ३. (सिन्धवः) = स्यन्दमान रेत:कण (अर्षन्ति) = प्राप्त होते हैं । ४. (यत्) = जब तू (गोभिः) =  ज्ञान की किरणों से (वासयिष्यसे) सबको (आच्छादित) = करेगा । 

प्रस्तुत मन्त्र में चार बातें कही गयी हैं – १. मनुष्य को विशाल हृदयवाला बनना चाहिए, २. (महनीय) = प्रशंसनीय कर्मों में लगे रहना चाहिए, ३. बहने के स्वभाववाले (रेतः) = वीर्यकणों की ऊर्ध्वगति के लिए यत्नशील होना चाहिए तथा ४. ज्ञान की प्राप्ति व प्रसार में लगे रहना चाहिए। अपने को भी ज्ञान की किरणों से आच्छादित करे और औरों को भी ज्ञान दे ।

भावार्थ -

हम महान् बनें, उदार हृदय हों, प्रशंसनीय कर्मों में लगे रहें।

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