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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1071
ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
4

य꣡स्य꣢ ते꣣ वि꣡श्व꣢मानु꣣ष꣡ग्भूरे꣢꣯र्द꣣त्त꣢स्य꣣ वे꣡द꣢ति । व꣡सु꣢ स्पा꣣र्हं꣡ तदा भ꣢꣯र ॥१०७१॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣡स्य꣢꣯ । ते꣣ । वि꣡श्व꣢꣯म् । अ꣣नुष꣢क् । अ꣣नु । स꣢क् । भू꣡रेः꣢꣯ । द꣣त्त꣡स्य꣢ । वे꣡द꣢꣯ति । व꣡सु꣢꣯ । स्पा꣣र्ह꣢म् । तत् । आ । भ꣣र ॥१०७१॥


स्वर रहित मन्त्र

यस्य ते विश्वमानुषग्भूरेर्दत्तस्य वेदति । वसु स्पार्हं तदा भर ॥१०७१॥


स्वर रहित पद पाठ

यस्य । ते । विश्वम् । अनुषक् । अनु । सक् । भूरेः । दत्तस्य । वेदति । वसु । स्पार्हम् । तत् । आ । भर ॥१०७१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1071
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

हे प्रभो! (भूरेः) = [भृ=-धारणपोषण] धारण-पोषण के लिए आवश्यक (ते यस्य) = आपके जिस (दत्तस्य) = दान का (विश्वम्) = सम्पूर्ण संसार (आनुषक्) = निरन्तर (वेदति) = लाभ प्राप्त करता है, (तत्) = उस (स्पार्हम् वसु) = स्पृहणीय धन को (आभर) = मुझमें भी पूर्ण कीजिए। आपकी कृपा से मैं भी अपनी जीवन-यात्रा में क्रमशः आवश्यक धनों को प्राप्त करता चलूँ । आवश्यक धन की मुझे कमी न रहे। आपकी कृपा से कण-कण करके सम्पत्ति का संचय करते हुए मैं अपने शरीर, मन और बुद्धि तीनों को ही दीप्त बनाकर इस मन्त्र का ऋषि ‘त्रिशोक काण्व' बन जाऊँ । 

भावार्थ -

हम समय-समय पर जीवन-यात्रा के लिए आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करनेवाले बनें ।
 

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