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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1141
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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त्वां꣡ विश्वे꣢꣯ अमृत꣣ जा꣡य꣢मान꣣ꣳ शि꣢शुं꣣ न꣢ दे꣣वा꣢ अ꣣भि꣡ सं न꣢꣯वन्ते । त꣢व꣣ क्र꣡तु꣢भिरमृत꣣त्व꣡मा꣢य꣣न्वै꣡श्वा꣢नर꣣ य꣢त्पि꣣त्रो꣡रदी꣢꣯देः ॥११४१॥

स्वर सहित पद पाठ

त्वाम् । वि꣡श्वे꣢꣯ । अ꣣मृत । अ । मृत । जा꣡य꣢꣯मानम् । शि꣡शु꣢꣯म् । न । दे꣣वाः꣢ । अ꣣भि꣢ । सम् । न꣣वन्ते । त꣡व꣢꣯ । क्र꣡तु꣢꣯भिः । अ꣣मृतत्व꣢म् । अ꣣ । मृतत्व꣢म् । आ꣣यन् । वै꣡श्वा꣢꣯नर । वै꣡श्व꣢꣯ । न꣣र । य꣢त् । पि꣣त्रोः꣢ । अ꣡दी꣢꣯देः ॥११४१॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वां विश्वे अमृत जायमानꣳ शिशुं न देवा अभि सं नवन्ते । तव क्रतुभिरमृतत्वमायन्वैश्वानर यत्पित्रोरदीदेः ॥११४१॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वाम् । विश्वे । अमृत । अ । मृत । जायमानम् । शिशुम् । न । देवाः । अभि । सम् । नवन्ते । तव । क्रतुभिः । अमृतत्वम् । अ । मृतत्वम् । आयन् । वैश्वानर । वैश्व । नर । यत् । पित्रोः । अदीदेः ॥११४१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1141
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

ब्रह्मचारी आचार्यकुल में प्रविष्ट होते हैं और आचार्य - गर्भ में रहकर उचित विकास प्राप्त करके फिर बाहर आते हैं, उस दिन बड़े-बड़े विद्वान् उसे देखने के लिए उपस्थित होते हैं । (विश्वे देवाः) = सब देव (शिशुं न जायमानम्) = शिशु के समान उत्पन्न होते हुए (त्वाम्) = तुझे (अभिसंनवन्ते) = लक्ष्य करके प्राप्त होते हैं [अभिसंनवन्ते=अभिसंयन्ति] । आचार्य प्रयत्न करता है कि विद्यार्थी का मन वासनाओं से आक्रान्त न हो और इस प्रकार वह 'अ-मृत' बना रहे । ब्रह्मचर्य के द्वारा देव मृत्यु को जीत लेते हैं। इस ब्रह्मचर्य के कारण इसकी बुद्धि अत्यन्त तीव्र हो जाती है, अतः इसे 'शिशु' कहा गया है ‘शो तनूकरणे'- जिसने बुद्धि को सूक्ष्म बनाया है।

हे (अमृत) = मृत्यु को जीतनेवाले ब्रह्मचारिन् ! (तव क्रतुभिः) = तेरे प्रज्ञानों व कर्मों से, अर्थात् तेरे द्वारा किये गये ज्ञान के प्रसार से लोग (अमृतत्वम्) = अमरता को (आयन्) = प्राप्त होते हैं । हे (वैश्वानरः) = [विश्वनर हित] सब लोगों का हित करनेवाले तथा सब लोगों को ['नृ नये'] शुभ मार्ग पर ले-चलनेवाले (यत्) = जब तू (पित्रो:) = [ज्ञानप्रदः पिता] ज्ञान देनेवाले माता-पिता के रूप में (अदीदेः) = चमकता है, अर्थात् जब ये ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी आचार्यकुल से बाहर आते हैं और द्वितीयाश्रम में प्रवेश करके माता-पिता के रूप में उज्ज्वल जीवन बिताते हुए क्रियात्मकरूप से ज्योति फैलाते हैं तब इनके इन कर्मों से लोग भी अमरता को प्राप्त होते हैं । वे भी इनके पदचिह्नों पर चलते हुए रोगादि पर विजय पाते हैं।

भावार्थ -

विद्यार्थी आचार्यकुल में नीरोगता द्वारा अमर बनने तथा बुद्धि को तीव्र बनाने का प्रयत्न करें । आचार्यकुल से बाहर आकर माता-पिता के रूप में इस प्रकार दीप्त व्यवहारवाले हों कि उनके कर्म सभी के लिए हितकर हों ।
 

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