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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 117
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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गा꣢व꣣ उ꣡प꣢ वदाव꣣टे꣢ म꣣हि꣢ य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ र꣣प्सु꣡दा꣢ । उ꣣भा꣡ कर्णा꣢꣯ हिर꣣ण्य꣡या꣢ ॥११७॥

स्वर सहित पद पाठ

गा꣡वः꣢꣯ । उ꣡प꣢꣯ । व꣣द । अवटे꣢ । म꣣ही꣡इति꣢ । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । र꣣प्सु꣡दा꣢ । र꣣प्सु꣢ । दा꣣ । उभा꣢ । क꣡र्णा꣢꣯ । हि꣣रण्य꣡या꣢ ॥११७॥


स्वर रहित मन्त्र

गाव उप वदावटे महि यज्ञस्य रप्सुदा । उभा कर्णा हिरण्यया ॥११७॥


स्वर रहित पद पाठ

गावः । उप । वद । अवटे । महीइति । यज्ञस्य । रप्सुदा । रप्सु । दा । उभा । कर्णा । हिरण्यया ॥११७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 117
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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पदार्थ -

इस मन्त्र का ऋषि ('हर्यत प्रागाथ') है। प्रभु का खूब ही गायन करनेवाला 'प्रागाथ' है। खाते-पीते, सोते-जागते यह प्रभु का स्मरण करना नहीं भूलता। इसकी वाणी निसर्गतः प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करती हैं, परन्तु प्रभु के स्तोत्रों का उच्चारण करते हुए यह 'हर्यत' है [हर्य गतिकान्तयोः] । यह गतिमय है, इसमें पुरुषार्थ है तथा प्रबल इच्छाशक्ति है कि वह ज्ञान प्राप्त कर सके। पिछले मन्त्र में इसी ज्ञान की मस्ती की याचना थी। यह माता, पिता, आचार्य व विद्वान् लेखकों की पुस्तकों से खूब ज्ञान प्राप्त करने के बाद अभी अतृप्त ही है और प्रभु से प्रार्थना करता है कि आप मेरे (अवटे) = उस हृदयाकाश में, जिसकी मैंने यथासम्भव काम-क्रोधादि की वृत्तियों के आक्रमण से रक्षा [अव् रक्षणे] की है, (गाव:) = तत्त्व को जनानेवाली वेदवाणियों का (उपवद) = उच्चारण कीजिए। मैं प्राकृतिक भोगों में फँसा हुआ नहीं हूँ। इस समय मैं आपके ही समीप उपस्थित हूँ। आप बोलिए तो सही। मैं क्यों न सुनूँगा? इस समय मुझे सुनने की प्रबल कामना है। 

कैसी वाणियों को? १. (महीः) = महिमा से भरी- अर्थगौरववाली । जिनके छोटे-छोटे शब्द महान् अर्थों से भरे हुए हैं। जैसे यहाँ ही 'अवट' शब्द उस हृदय का वाचक है जिसकी वासनाओं से अवन= रक्षा की गई है। २. (यज्ञस्य रप् + सु + दा) = यज्ञ के उपदेश को उत्तम प्रकार से देनेवाली। ये वेद वाणियाँ सदा उत्तम कर्मों का उपदेश देती हैं। उपदेश भी इस प्रकार से कि पाठक के हृदय पर उत्तम प्रभाव पड़े । ३.( उभा कर्णा हिरण्यया) = जो वाणियाँ दोनों कानों के लिए हितकर व रमणीय हैं। अशुभ शब्दों का सुनना भी अहित व अरमणीय है। कुछ आपातरमणीय वह लगा करता है, परन्तु उसका परिणाम परिताप कर है। वेदवाणियों का सुनना ही ठीक है।

भावार्थ -

प्रभु बोलें और मैं सुनूँ। ये वेदवाणियाँ अर्थ से भरी, उत्तम उपदेश देनेवाली व हित-रमणीय हैं।

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