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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1242
ऋषिः - अग्नयो धिष्ण्या ऐश्वराः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
1
शु꣣क्रः꣡ प꣢वस्व दे꣣वे꣡भ्यः꣢ सोम दि꣣वे꣡ पृ꣢थि꣣व्यै꣡ शं च꣢꣯ प्र꣣जा꣡भ्यः꣢ ॥१२४२॥
स्वर सहित पद पाठशु꣣क्रः꣢ । प꣣वस्व । देवे꣡भ्यः꣢꣯ । सो꣣म । दिवे꣢ । पृ꣣थिव्यै꣢ । शम् । च꣣ । प्रजा꣡भ्यः꣢ । प्र꣣ । जा꣡भ्यः꣢꣯ ॥१२४२॥
स्वर रहित मन्त्र
शुक्रः पवस्व देवेभ्यः सोम दिवे पृथिव्यै शं च प्रजाभ्यः ॥१२४२॥
स्वर रहित पद पाठ
शुक्रः । पवस्व । देवेभ्यः । सोम । दिवे । पृथिव्यै । शम् । च । प्रजाभ्यः । प्र । जाभ्यः ॥१२४२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1242
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 8; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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विषय - दीप्ति – शरीर, मन व बुद्धि
पदार्थ -
हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! तू (शुक्रः) = दीप्तिमान् है | तू मेरे अन्दर (देवेभ्य:) = दिव्य गुणों के लिए (दिवे) = मस्तिष्करूप द्युलोक की दीप्ति के लिए तथा (पृथिव्यै) = शरीररूप पृथिवी के उचित प्रथन [विस्तार] के लिए (पवस्व) = प्रवाहित हो । जब सोम का अपव्यय नहीं होता और इसकी ऊर्ध्वगति होकर यह शरीर में ही सुरक्षित रहता है तब वह १. हमारे मनों में दिव्य गुणों को जन्म देता है, हमारे मनों से ईर्ष्या-द्वेषादि की बुरी भावनाएँ लुप्त हो जाती हैं । २. हमारा मस्तिष्क ज्ञान की ज्योति से जगमगाने लगता है और ३. हमारा यह शरीर दृढ़ व नीरोग रहकर पूर्ण विकासवाला होता है । इस प्रकार हे सोम! तू (प्रजाभ्यः च शम्) = सब प्रजाओं के लिए शान्ति देनेवाला हो ।
ये सोमरक्षक लोग उन्नति के पथ पर आगे बढ़ने से 'अग्नयः' कहलाते हैं । उन्नत स्थान में स्थित होने से ‘धिष्ण्या:' [worthy of a high place] होते हैं । अन्त में ईश्वर को प्राप्त करनेवाले ये ‘ऐश्वरा:' हैं और तत्वदर्शी होने से ‘ऋषयः' होते हैं।
भावार्थ -
हम सोम रक्षा द्वारा मन को दिव्य गुणयुक्त बनाएँ, मस्तिष्क को उज्ज्वल और शरीर को नीरोग । इस प्रकार बनकर शान्ति का लाभ करें । यह सोम शुक्र है – शरीर, मन व बुद्धि को दीप्त करनेवाला है।
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