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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1279
ऋषिः - राहूगण आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
ए꣣तं꣢꣫ त्यꣳ ह꣣रि꣢तो꣣ द꣡श꣢ मर्मृ꣣ज्य꣡न्ते꣢ अप꣣स्यु꣡वः꣢ । या꣢भि꣣र्म꣡दा꣢य꣣ शु꣡म्भ꣢ते ॥१२७९॥
स्वर सहित पद पाठए꣣त꣢म् । त्यम् । ह꣣रि꣡तः꣢ । द꣡श꣢꣯ । म꣣र्मृज्य꣡न्ते꣢ । अ꣣पस्यु꣡वः꣢ । या꣡भिः꣢꣯ । म꣡दा꣢꣯य । शु꣡म्भ꣢꣯ते ॥१२७९॥
स्वर रहित मन्त्र
एतं त्यꣳ हरितो दश मर्मृज्यन्ते अपस्युवः । याभिर्मदाय शुम्भते ॥१२७९॥
स्वर रहित पद पाठ
एतम् । त्यम् । हरितः । दश । मर्मृज्यन्ते । अपस्युवः । याभिः । मदाय । शुम्भते ॥१२७९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1279
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
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विषय - क्रियाशीलता व शुद्धि
पदार्थ -
(एतं त्यम्) = इस प्रभुभक्त को (दश) = दस (अपस्युव:) = कर्मों को चाहती हुई, अर्थात् कर्मों में व्यापृत हुई- हुई (हरितः) = मन का हरण करनेवाली इन्द्रियाँ (मर्मृज्यन्ते) = खूब शुद्ध कर डालती हैं । इन्द्रियाँ 'हरित्' हैं—ये मन का विषयों में हरण करती हैं, परन्तु जब ये निरन्तर कर्म में लगी रहती हैं [अपस्युव:] तब दसों इन्द्रियाँ आत्मा को शुद्ध कर डालती हैं।
ये इन्द्रियाँ वे हैं (याभि:) = जिनसे (मदाय) = उल्लास के लिए (शुम्भते) = चमकता [Shines] है। इन्द्रियाँ जब निरन्तर कर्म में व्यापृत रहकर पवित्र बनती हैं तब वे मनुष्य के उल्लास के लिए होती हैं और यह उल्लास उसके चमकने का कारण होता है ।
भावार्थ -
हम इन्द्रियों को सदा कर्मव्यापृत रक्खें, यही इन्हें शुद्ध व वश में करने का उपाय है।
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