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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1291
ऋषिः - प्रियमेध आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
5
ए꣣ष꣢ शु꣣ष्म्य꣡दा꣢भ्यः꣣ सो꣡मः꣢ पुना꣣नो꣡ अ꣢र्षति । दे꣣वावी꣡र꣢घशꣳस꣣हा꣢ ॥१२९१॥
स्वर सहित पद पाठए꣣षः꣢ । शु꣣ष्मी꣢ । अ꣡दा꣢꣯भ्यः । अ । दा꣣भ्यः । सो꣡मः꣢꣯ । पु꣣नानः꣢ । अ꣣र्षति । दे꣣वावीः꣢ । दे꣣व । अवीः꣢ । अ꣣घशꣳसहा꣢ । अ꣣घशꣳस । हा꣢ ॥१२९१॥
स्वर रहित मन्त्र
एष शुष्म्यदाभ्यः सोमः पुनानो अर्षति । देवावीरघशꣳसहा ॥१२९१॥
स्वर रहित पद पाठ
एषः । शुष्मी । अदाभ्यः । अ । दाभ्यः । सोमः । पुनानः । अर्षति । देवावीः । देव । अवीः । अघशꣳसहा । अघशꣳस । हा ॥१२९१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1291
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 6
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 6
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
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विषय - जीवन-यात्रा में आगे बढ़ना
पदार्थ -
(एषः) = यह नृमेध १. (शुष्मी) = शत्रुओं का शोषण करता है, स्वयं २. (अदाभ्यः) = उन शत्रुओं से न दबता है, न हिंसित होता है ३. सोमः = शान्तस्वभाववाला होता है ४. पुनानः = अपने को पवित्र करने के स्वभाववाला होता है । इस प्रकार देवावी :- दिव्य गुणों को सब ओर से प्राप्त करनेवाला होता है अथवा अपने जीवन में दिव्य गुणों की रक्षा करनेवाला होता है और ५. (अघशंसहा) = [अघशंस इति स्तेननाम – नि० ३.२४.४] अपने अन्दर से चोर को नष्ट करनेवाला बनता है। अयज्ञियवृत्ति को ही यहाँ चोर कहा है- ‘अपञ्चयज्ञो मलिम्लुचः' पञ्चयज्ञ न करनेवाला चोर है । यह नृमेध इस ‘चोरवृत्ति' को अपने में से नष्ट करता है । यज्ञशेष को खानेवाला बनता है। इस प्रकार अपने जीवन में उपर्युक्त बातों को साधता हुआ (अर्षति) = यह नृमेध आगे और आगे बढ़ता चलता है।
भावार्थ -
‘शुष्मी, अदाभ्य, सोम, पुनान, देवावी और अघशंसहा' बनकर हम जीवन-यात्रा । में आगे बढ़ें।
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