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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1323
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
त्व꣡ꣳ सो꣢मासि धार꣣यु꣢र्म꣣न्द्र꣡ ओजि꣢꣯ष्ठो अध्व꣣रे꣢ । प꣡व꣢स्व मꣳह꣣य꣡द्र꣢यिः ॥१३२३॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । सो꣣म । असि । धारयुः꣢ । म꣣न्द्रः꣢ । ओ꣡जि꣢꣯ष्ठः । अ꣣ध्वरे꣢ । प꣡व꣢꣯स्व । म꣣ꣳहय꣡द्र꣢यिः । म꣣ꣳहय꣢त् । र꣣यिः ॥१३२३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वꣳ सोमासि धारयुर्मन्द्र ओजिष्ठो अध्वरे । पवस्व मꣳहयद्रयिः ॥१३२३॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । सोम । असि । धारयुः । मन्द्रः । ओजिष्ठः । अध्वरे । पवस्व । मꣳहयद्रयिः । मꣳहयत् । रयिः ॥१३२३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1323
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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विषय - ज्ञान की कामना व ओजस्विता
पदार्थ -
'भरद्वाज' अपने अन्दर शक्ति भरनेवाले और 'बार्हस्पत्य' ज्ञानी से प्रभु कहते हैं कि १. (त्वम्) = तू हे (सोम) = शान्तस्वभाव पुरुष ! (धारयुः) = [धारा=वाङ्] वाणी की कामनावाला (असि) = है । तू सदा ज्ञान की कामनावाला होकर सतत वेदवाणी का अध्ययन कर । २. (मन्द्रः) = तू सदा प्रसन्न मनवाला बन । ३. (ओजिष्ठः) = अत्यन्त शक्तिशाली हो । ४. (अध्वरे) = यज्ञों में लगा हुआ (पवस्व) = अपने जीवन को पवित्र बना । तथा ५. (मंहयद् रयिः) = धन का सदा दान देनेवाला बन । =
१. धन न देनेवाला २. यज्ञों में प्रवृत नहीं हो सकता । यज्ञों से दूर रहनेवाला व्यक्ति ३. विषयविलास की ओर जाकर शक्ति खो दाता है और कभी भी ओजिष्ठ नहीं बनता । ४. अन्ततः मानस आह्लाद भी इसे छोड़ जाता है और ५. 'यह ज्ञान की कामनावाला होगा' इस बात की तो सम्भावना ही नहीं रहती।
भावार्थ -
हम ज्ञान की कामनावाले हों, ओजिष्ठ बनें।
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