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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1336
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
5
त꣡मिद्व꣢꣯र्धन्तु नो꣣ गि꣡रो꣢ व꣣त्स꣢ꣳ स꣣ꣳशि꣡श्व꣢रीरिव । य꣡ इन्द्र꣢꣯स्य हृद꣣ꣳस꣡निः꣢ ॥१३३६॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । इत् । व꣢र्धन्तु । नः । गि꣡रः꣢꣯ । व꣣त्स꣢म् । स꣣ꣳशि꣡श्व꣢रीः । स꣣म् । शि꣡श्व꣢꣯रीः । इ꣣व । यः꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । हृ꣣दꣳस꣡निः꣢ ॥१३३६॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिद्वर्धन्तु नो गिरो वत्सꣳ सꣳशिश्वरीरिव । य इन्द्रस्य हृदꣳसनिः ॥१३३६॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । इत् । वर्धन्तु । नः । गिरः । वत्सम् । सꣳशिश्वरीः । सम् । शिश्वरीः । इव । यः । इन्द्रस्य । हृदꣳसनिः ॥१३३६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1336
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 11; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
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विषय - प्रभु-स्मरण से उत्साहमय जीवन
पदार्थ -
(नः)-हमारी (गिरः) = वाणियाँ (इत्) = निश्चय से (तम्) = उस प्रभु को ही (वर्धन्तु) = बढ़ाएँ, अर्थात् हमारी स्तुति-वाणियाँ उस प्रभु की भावना को हमारे अन्दर इस प्रकार बढ़ाएँ (इव) = जैसे (संशिश्वरी:) = उत्तम शिशुओंवाली माताएँ (वत्सम्) = अपने प्रिय सन्तान को बढ़ाती हैं । स्तुतिवचन मातृस्थानापन्न हैं और की भावना सन्तान के स्थान में हैं। स्तुति-वचन प्रभु-भावना को हमारे अन्दर अधिकाधिक बढ़ाएँगे उस प्रभु की भावना को ये स्तुतिवचन हममें बढ़ाएँ (यः) = जो प्रभु (इन्द्रस्य) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव के (हृदं सनिः) = हृदय में उत्साह प्राप्त करानेवाले हैं। जब मेरा जीवन प्रभु की भावना से ओतप्रोत होता है तब जहाँ मुझे पवित्रता प्राप्त होती है वहाँ निर्भीकता भी प्राप्त होती है। मेरा जीवन निराशा की भावना को परे फेंककर उत्साह की भावना से भर जाता है ।
भावार्थ -
प्रभु-स्मरण से मेरे मन में उत्साह का संचार हो ।
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