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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1424
ऋषिः - रेणुर्वैश्वामित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम -
6

स꣡ भक्ष꣢꣯माणो अ꣣मृ꣡त꣢स्य꣣ चा꣡रु꣢ण उ꣣भे꣢꣫ द्यावा꣣ का꣡व्ये꣢ना꣣ वि꣡ श꣢श्रथे । ते꣡जि꣢ष्ठा अ꣣पो꣢ म꣣ꣳह꣢ना꣣ प꣡रि꣢ व्यत꣣ य꣡दी꣢ दे꣣व꣢स्य꣣ श्र꣡व꣢सा꣣ स꣡दो꣢ वि꣣दुः꣢ ॥१४२४॥

स्वर सहित पद पाठ

सः꣢ । भ꣡क्ष꣢꣯माणः । अ꣣मृ꣡त꣢स्य । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯स्य । चा꣡रु꣢꣯णः । उ꣣भे꣡इति꣢ । द्या꣡वा꣢꣯ । का꣡व्ये꣢꣯न । वि । श꣣श्रथे । ते꣡जि꣢꣯ष्ठा । अ꣣पः꣢ । म꣣ꣳह꣡ना꣢ । प꣡रि꣢꣯ । व्य꣣त । य꣣दि꣢꣯ । दे꣣व꣡स्य꣢ । श्र꣡व꣢꣯सा । स꣡दः꣢꣯ । वि꣣दुः꣢ ॥१४२४॥


स्वर रहित मन्त्र

स भक्षमाणो अमृतस्य चारुण उभे द्यावा काव्येना वि शश्रथे । तेजिष्ठा अपो मꣳहना परि व्यत यदी देवस्य श्रवसा सदो विदुः ॥१४२४॥


स्वर रहित पद पाठ

सः । भक्षमाणः । अमृतस्य । अ । मृतस्य । चारुणः । उभेइति । द्यावा । काव्येन । वि । शश्रथे । तेजिष्ठा । अपः । मꣳहना । परि । व्यत । यदि । देवस्य । श्रवसा । सदः । विदुः ॥१४२४॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1424
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 12; खण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
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पदार्थ -

१. मन्त्र का ऋषि ‘रेणुः वैश्वामित्र: ' है — गतिशील, सबके साथ स्नेह करनेवाला। (सः) = वह रेणु (चारुणः) = सुन्दर (अ-मृतस्य) = सोम [वीर्य] और ज्ञान का (भक्षमाणः) = भक्षण करता हुआ (उभे) = दोनों (द्यावा) = [द्यावापृथिव्यौ] मस्तिष्क व शरीर को (काव्येन) = प्रभु के अमृतमय काव्य वेद के द्वारा (विशश्रथे) = मुक्त [liberate] करता है । वीर्य को शरीर में ही व्याप्त करने के द्वारा यह पृथिवीरूप शरीर को रोगों से मुक्त करता है, और ज्ञान प्राप्त करने से अपने मस्तिष्क व हृदय को दुर्विचारों व वासनाओं से मुक्त रखता है। यहाँ उभे विशेषण के कारण 'द्यावा' शब्द द्यावापृथिव्यौ का ही वाचक है। शरीर के रोगों से मोक्ष के लिए अमरत्व के साधनभूत सोम का पान - वीर्य की रक्षा आवश्यक है और मस्तिष्क व हृदय को दुर्विचारों व वासनाओं से मुक्त करने के लिए अमृतत्व के साधनभूत ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है–'ब्रह्मचर्य' ज्ञान का भक्षण ही तो है । २. ऐसा करने पर इस रेणु के (अपः) = कर्म (तेजिष्ठाः) = अत्यन्त तेजस्वी होते हैं । इसका प्रत्येक कार्य सफल होता है और एक विशेष ही प्रभाव रखता है । ३. (मंहना परिव्यत) = दान से यह अपने चारों ओर के लोक को आच्छादित कर लेता है। इस त्याग का परिणाम यह होता है कि इसकी प्रकृति के प्रति आसक्ति नहीं रहती और ४. (यत् ई) = ज्यूँही (देवस्य) = उस दिव्य गुणों के पुञ्ज प्रभु के (श्रवसा) = स्तोत्रों से [श्रवस् Hymn] इनका जीवन युक्त होता है त्यूँही ये रेणु वैश्वामित्र (सदो विदुः) = उस सर्वाधिष्ठान प्रभु को प्राप्त करते हैं ।
 

भावार्थ -

हम सोम व ज्ञान का भक्षण करें, हमारे कर्म तेजस्वी हों, हम दान से सभी को आच्छादित कर लें, अर्थात् हमारा दान व्यापक हो और प्रभु-स्तवन द्वारा हम अपने वास्तविक घर को– ब्रह्मलोक को प्राप्त करें ।

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