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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1485
ऋषिः - बृहद्दिव आथर्वणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम -
5
त्वे꣢꣫ क्रतु꣣म꣡पि꣢ वृञ्जन्ति꣣ वि꣢श्वे꣣ द्वि꣢꣫र्यदे꣣ते꣢꣫ त्रिर्भव꣣न्त्यू꣡माः꣢ । स्वा꣣दोः꣡ स्वादी꣢꣯यः स्वा꣣दु꣡ना꣢ सृजा꣣ स꣢म꣣दः꣢꣫ सु मधु꣣ म꣡धु꣢ना꣣भि꣡ यो꣢धीः ॥१४८५॥
स्वर सहित पद पाठत्वे꣡इति꣢ । क्र꣡तु꣢꣯म् । अ꣡पि꣢꣯ । वृ꣣ञ्जन्ति । वि꣡श्वे꣢꣯ । द्विः । यत् । ए꣣ते꣢ । त्रिः । भ꣡व꣢꣯न्ति । ऊ꣡माः꣢꣯ । स्वा꣣दोः꣢ । स्वा꣡दी꣢꣯यः । स्वा꣣दु꣡ना꣢ । सृ꣣ज । स꣢म् । अ꣣दः꣢ । सु । म꣡धु꣢꣯ । म꣡धु꣢꣯ना । अ꣣भि꣢ । यो꣣धीः ॥१४८५॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वे क्रतुमपि वृञ्जन्ति विश्वे द्विर्यदेते त्रिर्भवन्त्यूमाः । स्वादोः स्वादीयः स्वादुना सृजा समदः सु मधु मधुनाभि योधीः ॥१४८५॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वेइति । क्रतुम् । अपि । वृञ्जन्ति । विश्वे । द्विः । यत् । एते । त्रिः । भवन्ति । ऊमाः । स्वादोः । स्वादीयः । स्वादुना । सृज । सम् । अदः । सु । मधु । मधुना । अभि । योधीः ॥१४८५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1485
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 13; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - प्रभु-स्मरण और पवित्रता
पदार्थ -
जिन व्यक्तियों का जीवन सदा अपने को शत्रुओं से सुरक्षित रखने की प्रवृत्तिवाला होता है वे (ऊमाः) = आत्मरक्षक कहलाते हैं । (यत् एते) = जब ये लोग (द्विः भवन्ति) = दो [double] हो जाते हैं, अर्थात् गृहस्थ में प्रवेश करके 'पति-पत्नी' रूप से एक से दो हो जाते हैं और सन्तानोत्पत्ति के अनन्तर (त्रिः भवन्ति) = तीन हो जाते हैं, तब ये (विश्वे ऊमा:) = सब आत्मरक्षक लोग (त्वे) = आपमें (क्रतुम्) = अपने सङ्कल्प को (अपिवृञ्जन्ति) = पवित्र [purify] करते हैं, अर्थात् आपका ध्यान करते हुए अपने जीवन को अपवित्र नहीं होने देते । गृहस्थाश्रम का नाम 'मलाश्रम' भी है – इसमें मल लिप्त हो जाने की सदा ही आशंका बनी रहती है । प्रभु का स्मरण ही अपवित्रता से बचानेवाला है।
ऐसे सद्गृहस्थ सदा इस प्रकार प्रभु की आराधना करते हैं कि - हे प्रभो ! आप ही (स्वादोः स्वादीयः) = संसार की मधुर वस्तुओं से भी कहीं अधिक मधुर हैं । आप 'रस' ही हैं, आपकी प्राप्ति के रस के सामने सब सांसारिक विषयों के रस फीके हो जाते हैं। आप हमें (स्वादुना) = अपने रसमयरूप से (सृज) = संसृष्ट – संयुक्त कीजिए। आपकी उपासना से हम आपके 'अवर्णनीय' 'आनन्दरस' का अनुभव करें।
हे (समदः) = सदा शाश्वत उल्लास के साथ रहनेवाले प्रभो ! (सुमधु) = उत्तम रसरूप प्रभो ! (मधुना) = बड़े माधुर्य के साथ आप हमें कुटिलताओं व पापों के साथ (अभियोधी:) = युद्ध कराइए । हम सदा बुराई के साथ संघर्ष करनेवाले हों, परन्तु कभी भी हमारे हृदयों में किसी के प्रति कटुता की भावना उत्पन्न न हो । हम श्रेय का अनुशासन-कल्याण का उपदेश अहिंसा व माधुर्य के साथ ही करें और धर्म को चाहते हुए हम मधुर व श्लक्षण वाणी का ही प्रयोग करें ।
भावार्थ -
प्रभु रसमय हैं – स्वादु से भी स्वादु - मधुमय हैं, उनका उपासक भी मधुर ही होता है । शत्रुओं का शातन करते हुए भी वह माधुर्य को खोता नहीं ।
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