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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 15
ऋषिः - शुनः शेप आजीगर्तिः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
6
ज꣡रा꣢बोध꣣ त꣡द्वि꣢विड्ढि वि꣣शे꣡वि꣢शे य꣣ज्ञि꣡या꣢य । स्तो꣡म꣢ꣳ रु꣣द्रा꣡य꣢ दृशी꣣क꣢म् ॥१५
स्वर सहित पद पाठज꣡रा꣢꣯बोध । ज꣡रा꣢꣯ । बो꣣ध । त꣢त् । वि꣣विड्ढि । विशे꣡वि꣢शे । वि꣣शे꣢ । वि꣣शे । यज्ञि꣡या꣢य । स्तो꣡म꣢꣯म् । रु꣣द्रा꣡य꣢ । दृ꣣शीक꣢म् ॥१५॥
स्वर रहित मन्त्र
जराबोध तद्विविड्ढि विशेविशे यज्ञियाय । स्तोमꣳ रुद्राय दृशीकम् ॥१५
स्वर रहित पद पाठ
जराबोध । जरा । बोध । तत् । विविड्ढि । विशेविशे । विशे । विशे । यज्ञियाय । स्तोमम् । रुद्राय । दृशीकम् ॥१५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 15
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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विषय - दीखनेवाली स्तुति
पदार्थ -
प्रभु जीव से कहते हैं कि (जराबोध)= जरा - बुढ़ापा, उसमें बुध्यते - जो चेतता है, अर्थात्
यौवन के नशे में मनुष्य की बुद्धि विलुप्त हो जाती है, मानव जीवन का लक्ष्य भूल जाने से वह पथ - भ्रष्ट हो जाता है। प्रायः शक्तियों के जीर्ण हो जाने पर - जरावस्था आने पर उसे होश आता है, परन्तु इस प्रकार तो सब जीवन ही व्यर्थ चला जाता है, अतः प्रभु कहते हैं कि हे जराबोध! (विशेविशे)= प्रत्येक प्राणी में (यज्ञियाय)= सङ्गतिकरण में - सम्पर्क में श्रेष्ठ उस (रुद्राय)=क्रियात्मक उपदेश देनेवाले प्रभु के लिए [रुत्+र] (तत्)='तनु विस्तारे' विस्तृत (दृशीकम्)= जो आँखो से दिखे [visible] नकि केवल वाणी से बोला जाए, ऐसे (स्तोमम्)= स्तोत्र को-स्तुतिसमूह को (विविडि)= व्याप्त कर।
प्रभु प्रत्येक प्राणी में व्याप्त है। किसी से उन्हें घृणा नहीं है और इस प्रकार जीव को भी वे क्रियात्मक उपदेश दे रहे हैं कि मेरी स्तुति का प्रकार यही है कि तेरा सम्पर्क भी अधिक-से-अधिक प्राणियों से हो । Greatest good of the greatest number – (यद्भूतहित मत्यन्तम्)= अधिक-से-अधिक प्राणियों का हित करना ही तेरा लक्ष्य हो।
इसी उद्देश्य से तेरे सारे कर्म चलें। ये तेरे कर्म ही वस्तुतः उस प्रभु की दृश्य स्तुति होंगे। इसी मार्ग से चलकर ही हम वास्तविक सुख का [शुन:] निर्माण करनेवाले [शेप:] इस मन्त्र के ऋषि ‘शुन:शेप' बनेंगे।
भावार्थ -
प्रभु का अर्चन लोकहित के कर्मों द्वारा होता है, ('स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य'), कर्म ही उसके ‘दृशीक स्तोम' हैं।
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