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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1529
ऋषिः - केतुराग्नेयः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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आ꣡ग्ने꣢ स्थू꣣र꣢ꣳ र꣣यिं꣡ भ꣢र पृ꣣थुं꣡ गोम꣢꣯न्तम꣣श्वि꣡न꣢म् । अ꣣ङ्धि꣢꣫ खं व꣣र्त꣡या꣢ प꣣वि꣢म् ॥१५२९॥

स्वर सहित पद पाठ

आ । अ꣣ग्ने । स्थूर꣢म् । र꣣यि꣢म् । भ꣣र । पृथु꣢म् । गो꣡म꣢꣯न्तम् । अ꣣श्वि꣡न꣢म् । अ꣣ङ्धि꣢ । खम् । व꣣र्त꣡य꣢ । प꣣वि꣢म् ॥१५२९॥


स्वर रहित मन्त्र

आग्ने स्थूरꣳ रयिं भर पृथुं गोमन्तमश्विनम् । अङ्धि खं वर्तया पविम् ॥१५२९॥


स्वर रहित पद पाठ

आ । अग्ने । स्थूरम् । रयिम् । भर । पृथुम् । गोमन्तम् । अश्विनम् । अङ्धि । खम् । वर्तय । पविम् ॥१५२९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1529
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 14; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

(अग्ने) = हे मार्ग-दर्शक प्रभो ! ऐसे (रयिम्) = धन को (आभर) = हममें सर्वथा भरिए जो १. (स्थूरम्) = स्थिर है [ऋ० ६.१९.१० द०] चञ्चल नहीं । सामान्यतः धन की अस्थिरता प्रसिद्ध है। हमें वह धन प्राप्त कराइए जो हममें स्थिर निवास करे। यास्क के शब्दों में 'समाश्रितमात्रो महान् भवति' [नि० ६.२२], जो आश्रय किया हुआ सदा बढ़ता है । २. (प्रथुम्) = विस्तृत है [प्रथ विस्तारे] । यदि यह धन केवल मेरा ही पोषण करता है तब तो यह अत्यन्त संकुचित होगा। हमें वह धन प्राप्त कराइए जो विस्तृत हो—जो बहुतों का पोषण करनेवाला हो। मेरे द्वारा यज्ञों में विनियुक्त होकर 'रोदसी'=द्यावापृथिवी, अर्थात् सभी प्राणियों का पालक हो। ३. (गोमन्तम् अश्विनम्) = उत्तम गौवों व घोड़ोंवाला हो— इस धन के द्वारा मैं घर में गौवों व घोड़ों के रखने की व्यवस्था करूँ । गौवें सात्त्विक दूध के द्वारा हमारे ज्ञान की वृद्धि का कारण बनें तथा घोड़े सवारी [riding] के काम में आकर उचित व्यायाम द्वारा हमारी शक्ति का पोषण करें। यह वस्तुतः दौर्भाग्य है कि धनी घरों में गौवों का स्थान कुत्तों को मिल गया है और घोड़ों का स्थान मोटरों [कारों] को, परिणामत: हमारे ज्ञान व शक्तियों का ह्रास होता जाता है। 'गो' शब्द ज्ञानेन्द्रियों का तथा 'अश्व' कर्मेन्द्रियों का भी वाचक है, अतः यह अर्थ भी ठीक है कि यह धन हमारी ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों को उत्तम बनानेवाला हो ।

केतु प्रार्थना करता है कि – हे प्रभो ! (खम्) = हमारे हृदयाकाश को आप (अधि) = अलंकृत व परिष्कृत करें और (पविम्) = पवित्र करनेवाली वेदवाणी को [पविं=वाचम्-नि०] (वर्तया) = हममें प्रवृत्त करें ।

भावार्थ -

हम स्थिर, विस्तृत, उत्तम ज्ञान व कर्मयुक्त धन को प्राप्त करें । हमारे हृदय निर्मल हों, हमारी वाणी सदा वेद-मन्त्रों का, ज्ञान की बातों का – उच्चारण करें।

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