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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1548
ऋषिः - त्रित आप्त्यः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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भ꣣द्रो꣢ भ꣣द्र꣢या꣣ स꣡च꣢मा꣣न आ꣢गा꣣त्स्व꣡सा꣢रं जा꣣रो꣢ अ꣣꣬भ्ये꣢꣯ति प꣣श्चा꣢त् । सु꣣प्रकेतै꣡र्द्युभि꣢꣯र꣣ग्नि꣢र्वि꣣ति꣢ष्ठ꣣न्रु꣡श꣢द्भि꣣र्व꣡र्णै꣢र꣣भि꣢ रा꣣म꣡म꣢स्थात् ॥१५४८॥

स्वर सहित पद पाठ

भद्रः꣢ । भ꣣द्र꣡या꣢ । स꣡च꣢꣯मानः । आ । अ꣣गात् । स्व꣡सा꣢꣯रम् । जा꣣रः꣢ । अ꣣भि꣢ । ए꣣ति । पश्चा꣢त् । सु꣣प्रकेतैः꣢ । सु꣣ । प्रकेतैः꣢ । द्यु꣡भिः꣢꣯ । अ꣣ग्निः꣢ । वि꣣ति꣡ष्ठ꣢न् । वि꣣ । ति꣡ष्ठ꣢꣯न् । रु꣡श꣢꣯द्भिः । व꣡र्णैः꣢꣯ । अ꣣भि꣢ । रा꣣म꣢म् । अ꣣स्थात् ॥१५४८॥


स्वर रहित मन्त्र

भद्रो भद्रया सचमान आगात्स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात् । सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि राममस्थात् ॥१५४८॥


स्वर रहित पद पाठ

भद्रः । भद्रया । सचमानः । आ । अगात् । स्वसारम् । जारः । अभि । एति । पश्चात् । सुप्रकेतैः । सु । प्रकेतैः । द्युभिः । अग्निः । वितिष्ठन् । वि । तिष्ठन् । रुशद्भिः । वर्णैः । अभि । रामम् । अस्थात् ॥१५४८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1548
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

गत मन्त्र में वर्णित भद्रया-कल्याण व सुख की साधनभूत वेदवाणी से (सचमानः) = अपना अटूट सम्बन्ध बनाता हुआ (भद्रः) = शुभ जीवनवाला यह 'आप्त्य त्रित' (आगात्) = जीवन में गतिवाला होता है। वह सदा उस वेदवाणी के जन्म देनेवाले प्रभु का स्तोता होने से [जरते इति जार:] 'जार' कहलाता है। यह (जारः) = स्तोता (स्वसारं) [स्वयं सरति] = किसी और से गति न दिये गये – सबको गति देनेवाले—उस प्रभु के (पश्चात् अभ्येति) = पीछे-पीछे उसी की ओर चलनेवाला होता है। प्रभु के पीछे चलने का अभिप्राय यह है कि प्रभु दयालु हैं तो यह भी दयालु बनने का प्रयत्न करता है । प्रभु न्यायकारी हैं तो यह भी न्यायकारी बनने के लिए यत्नशील होता है ।

इस प्रकार आगे और आगे बढ़नेवाला यह (अग्निः) = उन्नतिशील जीव (सुप्रकेतैः) = उत्तम प्रकाशमय (द्युभिः) = ज्ञान-दीप्तियों के साथ (वितिष्ठन्) = विशेषरूप से स्थित हुआ-हुआ (उशद्भिः) = कामना व स्नेह से पगे [सिक्त] (वर्णैः) = प्रभु के गुणों के वर्णन करनेवाले स्तोत्रों से (रामम्) = उस सर्वत्र रममाण प्रभु की (अभि) = ओर (अस्थात्) = प्रस्थित होता है, अर्थात् यह अग्नि निरन्तर अपने ज्ञान को बढ़ाता चलता है तथा प्रभु के प्रेमभरे स्तोत्रों का उच्चारण करता हुआ प्रभु के अधिकाधिक समीप होता चलता है । ‘अग्नि' शब्द आगे बढ़ने के द्वारा कर्म का संकेत कर रहा है—वे कर्म भद्र हैं न कि अभद्र । 'द्युभिः शब्द ज्ञान का सूचक है तथा 'जार: ' शब्द स्तवन व उपासना को कह रहा है । इस प्रकार इस 'त्रित' के जीवन में ‘कर्म, ज्ञान व उपासना' तीनों का ही विस्तार हुआ है [त्रीन् तनोति], अत: यह त्रित सर्वत्र रममाण उस राम को प्राप्त क्यों न करेगा ?

भावार्थ -

वेदवाणी हमें भद्र कार्यों में प्रेरित करे । हम सबको गति देनेवाले प्रभु का अनुगमन करें। ज्ञान से अपने को दीप्त करें और प्रेमभरे स्तवनों से राम में रम जाएँ ।

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