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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1554
ऋषिः - सुदीतिपुरुमीढौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
5
अ꣡च्छा꣢ नः शी꣣र꣡शो꣢चिषं꣣ गि꣡रो꣢ यन्तु दर्श꣣त꣢म् । अ꣡च्छा꣢ य꣣ज्ञा꣢सो꣣ न꣡म꣢सा पुरू꣣व꣡सुं꣢ पुरुप्रश꣣स्त꣢मू꣣त꣡ये꣢ ॥१५५४॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡च्छ꣢꣯ । नः꣣ । शीर꣡शो꣢चिषम् । शी꣣र꣢ । शो꣣चिषम् । गि꣡रः꣢꣯ । य꣣न्तु । दर्शत꣢म् । अ꣡च्छ꣢꣯ । य꣣ज्ञा꣡सः꣢ । न꣡म꣢꣯सा । पु꣣रूव꣡सु꣢म् । पु꣣रु । व꣡सु꣢꣯म् । पु꣣रुप्रशस्त꣢म् । पु꣣रु । प्रशस्त꣢म् । ऊ꣣त꣡ये꣢ ॥१५५४॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छा नः शीरशोचिषं गिरो यन्तु दर्शतम् । अच्छा यज्ञासो नमसा पुरूवसुं पुरुप्रशस्तमूतये ॥१५५४॥
स्वर रहित पद पाठ
अच्छ । नः । शीरशोचिषम् । शीर । शोचिषम् । गिरः । यन्तु । दर्शतम् । अच्छ । यज्ञासः । नमसा । पुरूवसुम् । पुरु । वसुम् । पुरुप्रशस्तम् । पुरु । प्रशस्तम् । ऊतये ॥१५५४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1554
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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विषय - तृतीय नेत्र-ज्योति से काम-दहन
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘पुरुमीढ' है औरों के पालन के लिए धनादि की वर्षा करनेवाला [पुरु=पृ पालने, मीढ=मिह सेचने] । यह कहता है कि (नः गिरः) = हमारी वाणियाँ (अच्छ यन्तु) = उस प्रभु की ओर जाएँ जो — १. (शीरशोचिषम्) = सब बुराइयों की संहारक दीप्तिवाले हैं [ शृ हिंसायाम्, शोचि:=दीप्ति] । २. (दर्शतम्) = जो प्रभु दर्शनीय हैं। प्रभु सब उत्तमताओं का केन्द्र होने से दर्शत हैं। (यज्ञासः) = यज्ञशील लोग, जिन्हें गत मन्त्र में 'स्रुच:', [यजमान] शब्द से स्मरण किया था, (ऊतये) = रक्षा के लिए (नमसा) = नमन के द्वारा (अच्छ) = उस प्रभु की ओर जाते हैं जो - १. (पुरूवसुम्) = पालक व पूरक वसुओं – धनों के देनेवाले हैं तथा २. (पुरुप्रशस्तम्) = अत्यन्त प्रशस्त जीवनों का निर्माण करनेवाले हैं। प्रभु प्रार्थना से आवश्यक धन तो प्राप्त होता ही है, साथ ही जीवन अत्यन्त सुन्दर बन जाता है। हमें अपनी वाणियों से सदा प्रभु का स्मरण करना चाहिए जिससे प्रभु की ज्ञानदीप्ति से हमारे मल नष्ट हो जाएँ और हम उस दर्शनीय प्रभु का दर्शन कर पाएँ । यह प्रभु का दर्शनेच्छु व्यक्ति प्रभु की आराधना सर्वभूतहित में लगने के द्वारा ही करता है और इसीलिए 'पुरुमीढ' = खूब बरसनेवाला कहलाता है । यह अपने तन, मन, धन से औरों की सेवा करने में तत्पर रहता है। इस सेवा की वृत्ति में यह कभी अहंकारी न होकर सदा विनम्र बना रहता है । नम्रता से प्रभु का आवाहन ही हमें सब अशुभों से बचानेवाला होता है।
भावार्थ -
हम यज्ञशील हों, मनन से प्रभु को प्राप्त करें । प्रभु की ज्ञानदीप्ति हमारे मलों को नष्ट कर डाले ।
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