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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1572
ऋषिः - प्रयोगो भार्गवः पावकोऽग्निर्बार्हस्पत्यो वा गृहपति0यविष्ठौ सहसः पुत्रावन्यतरो वा
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
प꣣दं꣢ दे꣣व꣡स्य꣢ मी꣣ढु꣡षोऽना꣢꣯धृष्टाभिरू꣣ति꣡भिः꣢ । भ꣣द्रा꣡ सूर्य꣢꣯ इवोप꣣दृ꣢क् ॥१५७२॥
स्वर सहित पद पाठप꣣द꣢म् । दे꣣व꣡स्य꣢ । मी꣣ढु꣡षः꣢ । अ꣡ना꣢꣯धृष्टाभिः । अन् । आ꣣धृष्टाभिः । ऊति꣡भिः꣢ । भ꣣द्रा꣢ । सू꣡र्यः꣢꣯ । इ꣣व । उपदृ꣢क् । उ꣣प । दृ꣢क् ॥१५७२॥
स्वर रहित मन्त्र
पदं देवस्य मीढुषोऽनाधृष्टाभिरूतिभिः । भद्रा सूर्य इवोपदृक् ॥१५७२॥
स्वर रहित पद पाठ
पदम् । देवस्य । मीढुषः । अनाधृष्टाभिः । अन् । आधृष्टाभिः । ऊतिभिः । भद्रा । सूर्यः । इव । उपदृक् । उप । दृक् ॥१५७२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1572
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 15; खण्ड » 4; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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विषय - प्रभु-पद-प्राप्ति
पदार्थ -
गत मन्त्र के वर्णन के अनुसार (अनाधृष्टाभिः) = न धर्षणीय, न नष्ट करने योग्य (ऊतिभिः) = रक्षणों से मन्त्र का ऋषि प्रयोग (मीढुषः) = सब सुखों का सेचन करनेवाले (देवस्य) = दिव्य गुणयुक्त प्रभु के (पदम्) = स्वरूप को (सूर्यः इव) = सूर्य के समान (उपदृक्) = समीपता से देखनेवाला होता है ।
यदि मनुष्य मस्तिष्क को काम से धर्षणीय नहीं होने देता, हृदय को वासनाओं से बद्ध नहीं होने देता और शरीर को भोगों का शिकार न होने देकर शक्तिमय बनाये रखता है तब वह प्रभु के पद को इस प्रकार देख पाता है जैसे हम सूर्य को स्पष्ट देखते हैं । यह सूर्य के समान प्रभु-दर्शन की स्थिति ही (भद्रा) = कल्याण व सुख से पूर्ण है। यही ‘ब्राह्मीस्थिति' है । इसे प्राप्त कर किसी प्रकार का मोह नहीं रह जाता । इसका जीवन उत्तरोत्तर दिव्यता को प्राप्त कर श्रेष्ठ व श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम बन जाता है। वह प्रभु से की जा रही सुखों की वर्षा का पात्र होता है।
भावार्थ -
हम उस सुखवर्षक देव प्रभु के पद को देखनेवाले बनें ।
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