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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1659
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
5
पा꣡ता꣢ वृत्र꣣हा꣢ सु꣣त꣡मा घा꣢꣯ गम꣣न्ना꣢꣫रे अ꣣स्म꣢त् । नि꣡ य꣢मते श꣣त꣡मू꣢तिः ॥१६५९॥
स्वर सहित पद पाठपा꣡ता꣢ । वृ꣣त्र꣢हा । वृ꣣त्र । हा꣢ । सु꣣त꣢म् । आ । घ꣣ । गमत् । न꣢ । आ꣣रे꣢ । अ꣣स्म꣢त् । नि । य꣣मते । शत꣡मू꣢तिः । श꣣त꣢म् । ऊ꣣तिः ॥१६५९॥
स्वर रहित मन्त्र
पाता वृत्रहा सुतमा घा गमन्नारे अस्मत् । नि यमते शतमूतिः ॥१६५९॥
स्वर रहित पद पाठ
पाता । वृत्रहा । वृत्र । हा । सुतम् । आ । घ । गमत् । न । आरे । अस्मत् । नि । यमते । शतमूतिः । शतम् । ऊतिः ॥१६५९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1659
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - मेधातिथि का जीवन
पदार्थ -
यह (सुतं पाता) = सोम का पान करनेवाला इन्द्र (वृत्रहा) = कामादि ज्ञान के आवरणों को सचमुच हनन करनेवाला होता है । संयमी पुरुष की ज्ञानाग्नि इस प्रकार दीप्त होती है कि वह कामरूप वायु से बुझ नहीं सकती। सोम का पान कर वासना को विनष्ट करने पर (घ) = निश्चय से वह प्रभु (अस्मत्) = हमसे (आरे) = दूर (न अगमत्) = नहीं जाता, अर्थात् हमें सदा प्रभु का सान्निध्य प्राप्त होता है। यह (ऊतिः) = वासनाओं से अपनी रक्षा करनेवाला (शतम्) = सौ-के-सौ वर्ष (आनियमते) = अपने जीवन में सर्वथा संयमी बनता है। सौ वर्षों तक वासनाओं को वश में रखता है। संसार में यही तो बुद्धिमत्तापूर्वक चलने का मार्ग है। इसी से इसका नाम 'मेधातिथि' है । यह मेधातिथि वासनाओं का शिकार न होने से अन्त तक शक्तिशाली बना रहता है— अतः ‘आङ्गिरस' है । संक्षेप में 'मेधातिथि आङ्गिरस' का जीवन यह है कि।
१. वह सोम का पान करता है – शक्ति की रक्षा करता है ।
२. वासनाओं का विनाश करता है ।
३. प्रभु से यह दूर नहीं जाता ।
४. अपनी रक्षा करता है, सौ-के-सौ वर्षों तक संयमी जीवन बिताता है ।
भावार्थ -
हम संयमी जीवन बिताएँ, यही प्रभु सान्निध्य का सर्वोत्तम साधन है।
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