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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1685
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम -
2
इ꣡न्द्र꣢ स्थातर्हरीणां꣣ न꣡ कि꣢ष्टे पू꣣र्व्य꣡स्तु꣢तिम् । उ꣡दा꣢नꣳश꣣ श꣡व꣢सा꣣ न꣢ भ꣣न्द꣡ना꣢ ॥१६८५॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्र꣢꣯ । स्था꣣तः । हरीणाम् । न꣢ । किः꣣ । ते । पूर्व्य꣡स्तु꣢तिम् । पू꣣र्व्य꣢ । स्तु꣣तिम् । उ꣢त् । आ꣣नꣳश । श꣡व꣢꣯सा । न । भ꣣न्द꣡ना꣢ ॥१६८५॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र स्थातर्हरीणां न किष्टे पूर्व्यस्तुतिम् । उदानꣳश शवसा न भन्दना ॥१६८५॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्र । स्थातः । हरीणाम् । न । किः । ते । पूर्व्यस्तुतिम् । पूर्व्य । स्तुतिम् । उत् । आनꣳश । शवसा । न । भन्दना ॥१६८५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1685
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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विषय - जितेन्द्रियता
पदार्थ -
हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव ! (हरीणाम्) = इन्द्रियरूप अश्वों के ऊपर (स्थातः) = स्थित होनेवाले ! (ते) = तेरी (पूर्व्यस्तुतिम्) = मुख्य स्तुति को (न कि:) = न तो (शवसा) = बल से और न न ही (भन्दना) = तेज व शुभ कर्मों से (उदानंश) = कोई भी पाता है ।
अर्थात् जितना महत्त्व जितेन्द्रियता का है उतना न बल और तेज का और न ही शुभ कर्मों का है । वास्तविकता तो यह है कि जितेन्द्रियता के बिना न तो मनुष्य बलवान् और तेजस्वी हो सकता है और न ही उसकी शुभ कर्मों में प्रवृत्ति होती है । इस सारी बात का विचार करके ही आचार्य दयानन्द ने जितेन्द्रियता को सदाचार में प्रथम स्थान दिया है । मनु ने इसे सिद्धि की प्राप्ति के लिए आवश्यक माना है—(‘सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति') । जितेन्द्रियता वह केन्द्र है जिसके चारों ओर सदाचार के सब अङ्ग घूमते हैं ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि मनुष्य जितेन्द्रियता को अपना मौलिक कर्त्तव्य समझे । ऐसा समझने पर ही तो वह इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनकर 'वैयश्व' = विशिष्ट इन्द्रियरूप अश्वोंवाला बनेगा। ऐसा होने पर ही यह विश्वमनाः = व्यापक मनवाला भी बन पाएगा।
भावार्थ -
हम अपने जीवन मैं जितेन्द्रियता को सर्वाधिक महत्त्व दें ।