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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1710
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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अ꣣ग्निः꣢ प्रि꣣ये꣢षु꣣ धा꣡म꣢सु꣣ का꣡मो꣢ भू꣣त꣢स्य꣣ भ꣡व्य꣢स्य । स꣣म्रा꣢꣫डेको꣣ वि꣡रा꣢जति ॥१७१०॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣ग्निः꣢ । प्रि꣣ये꣡षु꣢ । धा꣡म꣢सु । का꣡मः꣢꣯ । भू꣣त꣡स्य꣢ । भ꣡व्य꣢꣯स्य । स꣣म्रा꣢ट् । स꣣म् । रा꣢ट् । ए꣡कः꣢꣯ । वि । रा꣣जति ॥१७१०॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्निः प्रियेषु धामसु कामो भूतस्य भव्यस्य । सम्राडेको विराजति ॥१७१०॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्निः । प्रियेषु । धामसु । कामः । भूतस्य । भव्यस्य । सम्राट् । सम् । राट् । एकः । वि । राजति ॥१७१०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1710
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 19; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 18; खण्ड » 4; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

'धाम' शब्द के वेद में तीन अर्थ हैं १. धन Wealth, २. शक्ति Power, ३. प्रकाश की किरण Ray of light । यहाँ तीनों ही अर्थ विवक्षित हैं। ‘धामसु' यह बहुवचन इस बात का संकेत कर रहा है । 'वैश्वानर अग्नि' में ये तीनों ही धाम होते हंृ । यह उचित मात्रा में धन का स्वामी होता है— शक्तिमान् होते हुए ज्ञान के प्रकाश का पोषण करता है। उसके ये धन, तेज व ज्ञान ‘प्रिय' होते हैं— लोगों के तर्पण के लिए होते हुए कान्त होते हैं। [प्रीञ् तर्पणे कान्तौ च] । (अग्नि:) = यह वैश्वानर अग्नि (प्रियेषु धामसु) = प्रिय धामों में स्थित हुआ-हुआ (भूतस्य भव्यस्य) = राष्ट्र व समाज की पिछली अगली सब स्थितियों को (कामः) = उत्तम बनाने की कामनावाला होता है अथवा (भूतस्य) = प्राणिमात्र के (भव्यस्य) =[भावुकं भविकं भव्यम् कुशलम्] कल्याण की (कामः) = कामनावाला होता है। ‘भूतस्य भव्यस्य' इन दोनों शब्दों के इकट्ठा आने से [Past or future] 'पिछला-अगला' यह अर्थ करने का सुझाव होता ही है । इस अर्थ में 'पिछले को कैसे अच्छा बनाना ! यह शंका रह जाती है, परन्तु इसे तो मुहावरा ही समझना चाहिए जैसे कि 'जिये-मरे का शोक नहीं करते' यह मुहाविरा हैजिये का कौन शोक किया करता है ? पिछले अर्थ में तो इस शंका का अवसर ही नहीं रहता। [भूत=प्राणी, भव्य= कल्याण] । नेता वही ठीक है जो सभी का कल्याण चाहता है, सभी के कल्याण की भावना से प्रवृत्त होता है ।

ऐसा नेता (सम्राट्) = प्रजाओं के हृदय का सम्राट् बनता है । यह [Uncrowned king]= बिना मुकुट के भी राजा ही होता है । (एकः) = यह राष्ट्र का मुख्य पुरुष होता है [एक=मुख्य] तथा (विराजति) = विशेषरूप से शोभावाला होता है । वस्तुतः ऐसा ही नेता प्रजा का कल्याण कर पाता है । यह अपने धन, बल व ज्ञान का लोकहित में ही विनियोग करता है । 'धन' नेता के वैश्यांश का प्रतीक है, 'बल' क्षत्रियांश का तथा ज्ञान 'ब्राह्मणांश' का । एवं, यह नेता अधिक-से-अधिक पूर्णता को लिये हुए होता है ।

भावार्थ -

राष्ट्र में उत्तम नेताओं का आविर्भाव सदा राष्ट्र को उत्तम बनाये रक्खे ।

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