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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1740
ऋषिः - सत्यश्रवा आत्रेयः
देवता - उषाः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
म꣣हे꣡ नो꣢ अ꣣द्य꣡ बो꣢ध꣣यो꣡षो꣢ रा꣣ये꣢ दि꣣वि꣡त्म꣢ती । य꣡था꣢ चिन्नो꣣ अ꣡बो꣢धयः स꣣त्य꣡श्र꣢वसि वा꣣य्ये꣡ सुजा꣢꣯ते꣣ अ꣡श्व꣢सूनृते ॥१७४०॥
स्वर सहित पद पाठम꣡हे꣢ । नः꣣ । अद्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । बो꣣धय । उ꣡षः꣢꣯ । रा꣣ये꣢ । दि꣣वि꣡त्म꣢ती । य꣡था꣢꣯ । चि꣣त् । नः । अ꣡बो꣢धयः । स꣣त्य꣡श्र꣢वसि । स꣣त्य꣢ । श्र꣣वसि । वाय्ये꣢ । सु꣡जा꣢꣯ते । सु । जा꣣ते । अ꣡श्व꣢꣯सूनृते । अ꣡श्व꣢꣯ । सू꣣नृते ॥१७४०॥
स्वर रहित मन्त्र
महे नो अद्य बोधयोषो राये दिवित्मती । यथा चिन्नो अबोधयः सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसूनृते ॥१७४०॥
स्वर रहित पद पाठ
महे । नः । अद्य । अ । द्य । बोधय । उषः । राये । दिवित्मती । यथा । चित् । नः । अबोधयः । सत्यश्रवसि । सत्य । श्रवसि । वाय्ये । सुजाते । सु । जाते । अश्वसूनृते । अश्व । सूनृते ॥१७४०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1740
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - हे उषे! हमें जगा
पदार्थ -
हे (उषः) = उषे! तू (दिवित्मती) = प्रकाशवाली है (न:) = हमें (अद्य)- आज (महे राये) = महान् ज्ञानरूप ऐश्वर्य के लिए (बोधय) = जगा । (चित्) = निश्चय से (नः) = हमें (यथा) = जैसे तू (अबोधयः) = जगाती है, उससे हम निम्न रूपों में जागरित हो उठते हैं १. (सत्यश्रवसि) = उत्तम सत्य ज्ञान में २. (वाय्ये) = विस्तार में, मन को विस्तृत करने में ३. (सुजाते) = उत्तम विकास में तथा ४. (अश्वसूनृते) = व्यापक, उत्तम, दुःखपरिहारक सत्य कर्मों में ।
उषा हमें इन बातों में जगाती है। इनमें जागकर हम प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘सत्यश्रवाः 'ज्ञानवाले तथा 'वत्स' = प्रभु के प्रिय बनते हैं ।
भावार्थ -
हम उषा से प्रेरणा प्राप्त करके 'सत्यज्ञान' वाले बनने का प्रयत्न करें ।
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