Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1749
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - उषाः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
4

इ꣣द꣢꣫ꣳ श्रेष्ठं꣣ ज्यो꣡ति꣢षां꣣ ज्यो꣢ति꣣रा꣡गा꣢च्चि꣣त्रः꣡ प्र꣢के꣣तो꣡ अ꣢जनिष्ट꣣ विभ्वा꣢ । य꣢था꣣ प्र꣡सू꣢ता सवि꣣तुः꣢ स꣣वा꣢यै꣣वा꣢꣫ रात्र्यु꣣ष꣢से꣣ यो꣡नि꣢मारैक् ॥१७४९॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣣द꣢म् । श्रे꣡ष्ठ꣢꣯म् । ज्यो꣡ति꣢꣯षाम् । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । आ । अ꣣गात् । चित्रः꣢ । प्र꣣केतः꣢ । प्र꣣ । केतः꣢ । अ꣣जनिष्ट । वि꣡भ्वा꣢꣯ । वि । भ्वा꣣ । य꣡था꣢꣯ । प्र꣡सू꣢꣯ता । प्र । सू꣢ता । सवितुः꣢ । स꣣वा꣡य꣢ । ए꣣व꣢ । रा꣡त्री꣢꣯ । उ꣣ष꣡से꣢ । यो꣡नि꣢꣯म् । आ꣣रैक् ॥१७४९॥


स्वर रहित मन्त्र

इदꣳ श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिरागाच्चित्रः प्रकेतो अजनिष्ट विभ्वा । यथा प्रसूता सवितुः सवायैवा रात्र्युषसे योनिमारैक् ॥१७४९॥


स्वर रहित पद पाठ

इदम् । श्रेष्ठम् । ज्योतिषाम् । ज्योतिः । आ । अगात् । चित्रः । प्रकेतः । प्र । केतः । अजनिष्ट । विभ्वा । वि । भ्वा । यथा । प्रसूता । प्र । सूता । सवितुः । सवाय । एव । रात्री । उषसे । योनिम् । आरैक् ॥१७४९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1749
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 8; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 19; खण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment

पदार्थ -

जब मनुष्य साधना के मार्ग पर चलता है- जिसका कि साधारण स्वरूप 'आसन, प्राणायाम व मन को निर्विषय करना' है- तब एक दिन उसके जीवन में वह समय आता है कि वह कह उठता है—

(इदम्) = यह (श्रेष्ठम्) = सर्वोत्तम (ज्योतिषां ज्योतिः) = ज्योतियों की भी ज्योति क्योंकि उसके उदय होने पर (‘न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोयमग्निः । तमेवभान्तनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति'  आगात्) = उदय हो गयी है । यह तो (चित्रः) = अद्भुत है[चित्-र] ज्ञान देनेवाली है – इसने तो मेरे ज्ञान - नेत्र ही खोल दिये। (प्रकेतः) = अरे! यह प्रभु तो प्रकृष्ट ज्ञानमय हैं— ज्ञान ही ज्ञानस्वरूप हैं । यह (विश्वा) = सर्वव्यापक ज्योति (अजनिष्ट) = प्रादुर्भूत हो गयी है। इसका दर्शन कर आज मैं एकत्व का अनुभव कर रहा हूँ—('अयुतोहम्') = एकत्व का अनुभव करके मैं शोक-मोह से ऊपर उठ गया हूँ——('तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः')। मणियाँ बेशक अलग-अलग हों, वह सूत्र तो एक ही है [मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव] । ज्ञान के
अभाव में पृथक्ता थी, आज ज्ञानसूर्य के उदय होने पर सब एक हो गया है।

ब्रह्माण्ड में होनेवाली प्रतिदिन की घटना यही तो है कि- (यथा) = जैसे (प्रसूता) = उत्पन्न हुई हुई उषा (सवितुः) = सूर्य के (सवाय) = उत्पन्न होने के लिए होती है (एव) = इसी प्रकार रात्रि - रात (उषसे) = उषा के लिए (योनिम्) = स्थान को (आरैक्) = खाली करती है। रात्रि उषा के लिए, उषा सूर्य के लिए अपने को समाप्त कर देती है। अब यह घटना ही इस पिण्ड में घटनी चाहिए । यही ब्रह्माण्ड व पिण्ड की अनुकूलता होगी। रात्रि का अभिप्राय है— अन्धकार व मौज [रात्रि – रमयित्री], अर्थात् तमस्। तमोगुण हमारे जीवन से नष्ट हो– हम प्रमाद, आलस्य व निद्रा को त्यागें । उष:काल की क्रियाशीलता हममें आये। यह रजस् की प्रतीक है, परन्तु हम प्रतिक्षण धन के लिए क्रियाशील बने रहे तो यह धन का संसार भी हमें शान्ति प्राप्त नहीं कराता । यह उषा सूर्य को जन्म दे । सूर्य का प्रकाश, अर्थात् सत्त्वगुण – ज्ञान हममें प्रबल हो । हम गृहस्थ के सच्चे स्वरूप को समझें - और सदा इस मलाश्रम में न उलझे रहें। अपने उत्तराधिकारियों को यह बोझ देकर हम आगे बढ़ जाएँ | साधना करें – स्वाध्याय करें–सेवाकार्य में संलग्न रहें । यही जीवन की सार्थकता है। यही मार्ग हमें 'कुत्स' = सब बुराइयों की हिंसा करनेवाला बनाएगा। ।

भावार्थ -

मैं साधना में चलूँ – स्वाध्यायशील बनूँ - सेवा कार्य में आनन्द का अनुभव करूँ । तम से ऊपर उठकर रज में, रज से भी ऊपर उठकर सत्त्व में अवस्थित होऊँ।

इस भाष्य को एडिट करें
Top