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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1768
ऋषिः - नृमेधो वामदेवो वा देवता - इन्द्रः छन्दः - द्विपदा गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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ए꣣ष꣢ ब्र꣣ह्मा꣢꣫ य ऋ꣣त्वि꣢य꣣ इ꣢न्द्रो꣣ ना꣡म꣢ श्रु꣣तो꣢ गृ꣣णे ॥१७६८॥

स्वर सहित पद पाठ

ए꣣षः꣢ । ब्र꣡ह्मा꣢ । यः । ऋ꣣त्वि꣡यः꣢ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । ना꣡म꣢꣯ । श्रु꣣तः꣢ । गृ꣣णे꣢ ॥१७६८॥१


स्वर रहित मन्त्र

एष ब्रह्मा य ऋत्विय इन्द्रो नाम श्रुतो गृणे ॥१७६८॥


स्वर रहित पद पाठ

एषः । ब्रह्मा । यः । ऋत्वियः । इन्द्रः । नाम । श्रुतः । गृणे ॥१७६८॥१

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1768
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 20; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

, मनुष्य ने सोमरक्षा के द्वारा अपने जीवन में आगे और आगे बढ़ना है। तमोगुण से रजोगुण में, रजोगुण से सत्त्वगुण में, सत्त्वगुण में भी निकृष्ट सत्त्व से मध्यम सत्त्व में और मध्यम सत्त्व से उत्तम सत्त्व में उसने पहुँचना है। उत्तम सत्त्वगुण में भी यदि वह प्रथम स्थान में स्थित होता है तो यह उसकी इस मानव-जीवन में उन्नति की पराकाष्ठा होती है – (एषः ब्रह्मा) = यह 'ब्रह्म' = बढ़ा हुआ होता है। उसने उन्नति करते-करते यहीं तक तो पहुँचना था— अब यह ‘ब्रह्म-प्राप्ति' का अधिकारी बन चुका । ब्रह्मा ही तो ब्रह्म को प्राप्त करता है । यही ('देवानां प्रथम:') = सब देवों में प्रथम स्थान में स्थित होता है अब प्रश्न यह है कि 'ब्रह्मा' बनता कौन है ? इसका उत्तर मन्त्र में इस प्रकार देते हैं कि – १. (यः ऋत्वियः) = जो ऋतु - ऋतु के अनुकूल कार्य करनेवाला होता है । जिसका जीवन ऋतमय होता है—एकदम सूर्यचन्द्र की भाँति नियमित [regular] जीवनवाला ही ब्रह्मा बनता है । २. (इन्द्रः) = जो इन्द्र बनता है, अर्थात् इन्द्रियों का अधिष्ठाता होता है। जो इन्द्रिय-वासनाओं का शिकार नहीं होता ३. (नाम) = जो मन में सदा नमन की वृत्तिवाला होता है, जो अभिमान को अपने से दूर रखता है । ४. (श्रुतः) = [ श्रुतमस्यास्ति इति] — जो शास्त्र के श्रवण की रुचिवाला ज्ञानी होता है। संक्षेप में जो जीवन के दैनिक कार्यक्रम में बड़ा नियमित है, इन्द्रियों का गुलाम नहीं, विनीत है, जो शास्त्रों का पारद्रष्टा बना है, वही ब्रह्मा कहलाता है।

प्रभु कहते हैं कि गृणे- इस ब्रह्मा की मैं प्रशंसा करता हूँ । योग्य बनने पर पुत्र पिता से प्रशंसा व उत्साह प्राप्त करता है। ब्रह्म से यह ब्रह्मा क्यों न प्रशंसा पाएगा । हम भी इन सुन्दर दिव्य गुणों से अपने जीवन को अलंकृत करके प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि ‘वामदेव' बनें । 

भावार्थ -

ब्रह्मा बनकर हम ब्रह्म से आदृत हों ।

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