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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 183
ऋषिः - शुनः शेप आजीगर्तिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣य꣡मु꣢ ते꣣ स꣡म꣢तसि क꣣पो꣡त꣢ इव गर्भ꣣धि꣢म् । व꣢च꣣स्त꣡च्चि꣢न्न ओहसे ॥१८३॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣य꣢म् । उ꣣ । ते । स꣢म् । अ꣣तसि । कपो꣡तः꣢ । इ꣣व । गर्भधि꣣म् । ग꣣र्भ । धि꣢म् । व꣡चः꣢꣯ । तत् । चि꣣त् । नः । ओहसे ॥१८३॥


स्वर रहित मन्त्र

अयमु ते समतसि कपोत इव गर्भधिम् । वचस्तच्चिन्न ओहसे ॥१८३॥


स्वर रहित पद पाठ

अयम् । उ । ते । सम् । अतसि । कपोतः । इव । गर्भधिम् । गर्भ । धिम् । वचः । तत् । चित् । नः । ओहसे ॥१८३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 183
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 7;
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पदार्थ -

इस मन्त्र का ऋषि 'शुन : शेप' = सुख का निर्माण करनेवाला, अनुभव से प्रकृति की ओर झुकाव को श्रेयस्कर न समझकर कहता है कि (अयम् उ ते)= यह मैं निश्चय से अब तेरा हूँ।
शरीर के लिए आवश्यक प्राकृतिक भोगों को स्वीकार करके भी मैं उन भोगों में फँस नहीं गया हूँ, वे मेरे जीवन का ध्येय नहीं बन गये हैं।

मैं आपका हूँ, परिणामतः आप भी मुझे (समतसि) = प्राप्त होते हैं। जीव प्रभु का मित्र बनता है तो प्रभु जीव के मित्र होते ही हैं। मैं तेरा और तू मेरा । इस स्थिति में मैं इस उदधि के समान गर्भ जिसमें धारण किये जाते हैं उस (गर्भधिम्)= जन्म-मरण के आवर्त्तीवाले संसार - समुद्र को उस व्यक्ति की भाँति पार कर लेता हूँ जिसने कि (क-पोतः) = मस्तिष्क को अपनी नाव बनाया है। (कम्)=शिरः, (पोत:) = नौका, यह संसार - समुद्र बिना ज्ञान के क्या कभी तैरा जा सकता है? प्रलोभनरूप आवर्त इतने सुदुस्तर होते हैं कि मनुष्य उनमें डूब ही जाता है। सिवाय ज्ञान के इस संसार - समुद्र को तैरने का अन्य मार्ग नहीं है, परन्तु इस ज्ञान को भी वे प्रभु ही प्राप्त कराते हैं। शुनः शेप कहता है कि हे प्रभो! आप ही (तत् वाचः) = उस ज्ञान देनेवाली वेदवाणी को (चित्)= निश्चय से (नः) = हमें (ओहसे)= प्राप्त कराते हैं [ओह:=bringing]। सृष्टि के प्रारम्भ में दी गई इस वेदवाणी से ही हम उस सत्य ज्ञान को प्राप्त करते हैं, जो हमारे विवेक-चक्षुओं को खोलकर हमें प्रलोभनों में नहीं फँसने देता।

भावार्थ -

 हम ज्ञान को नाव बनाकर भवसागर को तैर जाएँ ।

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