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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1861
ऋषिः - अप्रतिरथ ऐन्द्रः देवता - अप्वा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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अ꣣मी꣡षां꣢ चि꣣त्तं꣡ प्र꣢तिलो꣣भ꣡य꣢न्ती गृहा꣣णा꣡ङ्गा꣢न्यप्वे꣣ प꣡रे꣢हि । अ꣣भि꣢꣫ प्रेहि꣣ नि꣡र्द꣢ह हृ꣣त्सु꣡ शोकै꣢꣯र꣣न्धे꣢ना꣣मि꣢त्रा꣣स्त꣡म꣢सा सचन्ताम् ॥१८६१॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣मी꣡षा꣢म् । चि꣣त्त꣢म् । प्र꣣तिलोभ꣡य꣢न्ती । प्र꣣ति । लोभ꣡य꣢न्ती । गृ꣣हाण꣢ । अ꣡ङ्गा꣢꣯नि । अ꣣प्वे । प꣡रा꣢꣯ । इ꣣हि । अभि꣢ । प्र । इ꣣हि । निः꣢ । द꣣ह । हृत्सु꣢ । शो꣡कैः꣢꣯ । अ꣣न्धे꣡न꣢ । अ꣣मि꣡त्राः꣢ । अ꣣ । मि꣡त्राः꣢꣯ । त꣡म꣢꣯सा । स꣣चन्ताम् ॥१८६१॥


स्वर रहित मन्त्र

अमीषां चित्तं प्रतिलोभयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि । अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैरन्धेनामित्रास्तमसा सचन्ताम् ॥१८६१॥


स्वर रहित पद पाठ

अमीषाम् । चित्तम् । प्रतिलोभयन्ती । प्रति । लोभयन्ती । गृहाण । अङ्गानि । अप्वे । परा । इहि । अभि । प्र । इहि । निः । दह । हृत्सु । शोकैः । अन्धेन । अमित्राः । अ । मित्राः । तमसा । सचन्ताम् ॥१८६१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1861
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 9; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 21; खण्ड » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

लोभ की प्रवृत्ति बड़ी विचित्र है । १. यह कम-से-कम प्रयत्न से अधिक-से-अधिक लेना चाहती है । २. यह प्रवृत्ति आवश्यकता को नहीं देखती । इसमें धन के प्रति लोभ [लुभ=Love]— एक प्रेम-सा होता है, जिसके कारण एक लोभी किसी अन्य बन्धु-बान्धव या प्राणी से प्रेम नहीं कर पाता। ३. इतना ही नहीं यह किसी अन्य की सम्पत्ति को देखकर जलता है——इसके हृदय में उनके प्रति स्नेह न रहे', यही नहीं; यह उनके प्रति 'दुर्हद्-अमित्र' हो जाता है और उनको नष्ट करने का प्रयत्न करता है, या स्वयं ही उस ईर्ष्याग्नि में जलता रहता है । एवं, लोभ ईर्ष्याजनक होता है। मन्त्र में कहते हैं कि (अप्वे) = हे [आप्=प्राप्त करना] अधिक और अधिक धन को प्राप्त करने की इच्छा ! तू (अमीषाम्) = इन तेरे शिकार बने हुए लोगों के (चित्तम्) = चित्त को (प्रतिलोभयन्ती) = प्रत्येक ऐश्वर्य के प्रति लुब्ध करती हुई (अङ्गानि गृहाण) = इनके अङ्गों को जकड़ ले – इनको अपने वश में कर ले। लोभाविष्ट हुआ हुआ मनुष्य इस प्रकार धन का दास बन जाता है कि उसको धनके अतिरिक्त कुछ भी नहीं सूझता । वह धन के लिए अपने आराम को समाप्त कर देता है—वह धन के लिए अपने बन्धुत्व की बलि दे देता है - आत्मा-परमात्मा के स्मरण का तो प्रश्न ही नहीं रहता । एक ही शब्द उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग से सुनाई पड़ता है— धन-धन और धन | (परा इहि) = हे अप्वे! तू हमसे परे जा—हमारा पीछा छोड़। जो (अमित्रा:) = किसी से स्नेह न करनेवाले लोग हैं उनका (अभिप्र-इहि) = लक्ष्य करके खूब गतिशील हो, अर्थात् उन्हें तू प्राप्त कर । उन्हें ही तू (हृत्सु) = हृदयों में (शौकेः) = शोकाग्नियों से (निर्दह) = नितरां जलानेवाली बन । लोभी व ईर्ष्यालु पुरुषों के ही मन जलते रहें । हमपर तो तू कृपा कर, हमसे दूर रह और हमें जलानेवाली न हो ।

ये (अमित्रा:) = प्राणियों के प्रति स्नेहशून्य हृदयवाले लोग ही (अन्धेन तमसा) = इस अन्धी इच्छा से [तमस्=Desire] (सचताम्) = संयुक्त हों । यह इच्छा अन्धी तो है ही। साध्य व साधन Ends व means का विचार न करती हुई यह साधन को ही साध्य समझ लेती है और परिणामत: धन की ही उपासक हो जाती है। धन की देवता भग तो अन्धी है – ये भी धन के पीछे अन्धे हो जाते हैं। अच्छा यही है कि इस अन्धी इच्छा से मुक्त होकर हम ‘चक्षुष्मान्' बने रहें - अपने लक्ष्य को पहचानें और उसे प्राप्त करने के लिए अग्रसर हों । हे अप्वे ! धनाहरणाभिलाषे! तू (परेहि) = कृपया हमसे परे ही रह । 

भावार्थ -

हम लोभ की भावना से ऊपर उठें, जिससे हृदयों में शोकाग्नि से सन्तप्त न होते रहें ।

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