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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 201
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣣मा꣡ उ꣢ त्वा सु꣣ते꣡सु꣢ते꣣ न꣡क्ष꣢न्ते गिर्वणो꣣ गि꣡रः꣢ । गा꣡वो꣢ व꣣त्सं꣢꣫ न धे꣣न꣡वः꣢ ॥२०१॥
स्वर सहित पद पाठइ꣣माः꣢ । उ꣣ । त्वा । सुते꣡सु꣢ते । सु꣣ते꣢ । सु꣣ते । न꣡क्ष꣢꣯न्ते । गि꣣र्वणः । गिः । वनः । गि꣡रः꣢꣯ । गा꣡वः꣢꣯ । व꣣त्स꣢म् । न । धे꣣न꣡वः꣢ ॥२०१॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा उ त्वा सुतेसुते नक्षन्ते गिर्वणो गिरः । गावो वत्सं न धेनवः ॥२०१॥
स्वर रहित पद पाठ
इमाः । उ । त्वा । सुतेसुते । सुते । सुते । नक्षन्ते । गिर्वणः । गिः । वनः । गिरः । गावः । वत्सम् । न । धेनवः ॥२०१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 201
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 9;
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विषय - ज्ञानी भक्त
पदार्थ -
इस मन्त्र का ऋषि 'भरद्वाज बार्हस्पत्य' है। यह अपने अन्दर शक्ति भरता है [भरत्+वाज] और ज्ञानियों का भी ज्ञानी - बृहस्पति = ब्रह्मणस्पति बनने का प्रयत्न करता है। मन्त्र में ‘सुते-सुते' शब्द शक्ति व ज्ञान दोनों का ही उल्लेख करता है। शक्ति का भी रस-रुधिरादि क्रमेण व होता है और ज्ञान का भी विद्यार्थी आचार्य से प्रणिपात, परिप्रश्न व सेवा द्वारा सवन किया करता है। इस ज्ञान का सवन करने के कारण ही यह यहाँ गिर्वन्- वेदवाणियों का सवन करनेवाला कहलाया है। इन वेदवाणियों के सवन से उत्तरोत्तर इसका ज्ञान बढ़ता चलता है। प्रत्येक पदार्थ को यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने लगता है। प्रत्येक पदार्थ की रचना में इसे अद्भुत सौन्दर्य प्रतीत होने लगता है और यह उस सौन्दर्य के अदृश्य निर्माता के प्रति नतमस्तक हो वाणियों से उसका गायन करने लगता है।
यह ‘भरद्वाज बार्हस्पत्य' कहता है कि (सुते-सुते)=ज्यों-ज्यों मेरा ज्ञान बढ़ता है त्यों-त्यों मुझ (गिर्वणः) = वेदवाणियों का सवन करनेवाले की (इमाः गिरः) = ये वाणियाँ (उ) = निश्चय से (त्वा) = तुझे ही (नक्षन्ते) = प्राप्त होती हैं तेरा ही गुणगान करती हैं। मेरी वाणियाँ तेरे प्रति उसी प्रकार प्रेम के प्रवाहवाली होती हैं (न)= जैसेकि (धेनवः गावः) = नवसूतिका गौवें (वत्सम्) = बछड़े के प्रति। नवसूतिका गौ का बछड़े के प्रति सहज प्रेम होता है, प्रभु के प्रति मेरा प्रेम भी स्वाभाविक हो उठता है। मुझे प्रभु के गायन में ही आनन्द आने लगता है। क्या सूर्य, क्या चन्द्र व क्या नक्षत्र- मुझे सभी प्रभु का गायन करते प्रतीत होते हैं। आकाश में उमड़ते मेघों में मुझे प्रभु की महिमा का स्मरण होता है। निरन्तर बहती नदियाँ मुझे प्रभु की याद दिलाती हैं। अपने शरीर में अङ्ग-प्रत्यङ्ग की रचना मुझे प्रभु के प्रति नतमस्तक करती है और मेरी वाणी से उस प्रभु के नामों का उच्चारण होने लगता है। यह ज्ञानी भक्त ही प्रभु का अनन्य भक्त कहलाता है - यह प्रभु को आत्मतुल्य प्रिय होता है।
भावार्थ -
भावार्थ- हम प्रभु के 'ज्ञानी भक्त' बनने के लिए प्रयत्नशील हों।