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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 218
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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ऋ꣣जुनीती꣢ नो꣣ व꣡रु꣢णो मि꣣त्रो꣡ न꣢यति वि꣣द्वा꣢न् । अ꣣र्यमा꣢ दे꣣वैः꣢ स꣣जो꣡षाः꣢ ॥२१८॥
स्वर सहित पद पाठऋ꣣जुनी꣢ती । ऋ꣣जु । नीती꣢ । नः꣣ । व꣡रु꣢꣯णः । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । न꣣यति । विद्वा꣢न् । अ꣣र्यमा꣢ । दे꣣वैः꣢ । स꣣जो꣡षाः । स꣣ । जो꣡षाः꣢꣯ ॥२१८॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋजुनीती नो वरुणो मित्रो नयति विद्वान् । अर्यमा देवैः सजोषाः ॥२१८॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋजुनीती । ऋजु । नीती । नः । वरुणः । मित्रः । मि । त्रः । नयति । विद्वान् । अर्यमा । देवैः । सजोषाः । स । जोषाः ॥२१८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 218
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
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विषय - सरलता के मार्ग से
पदार्थ -
इस द्वन्द्वात्मक संसार में मनुष्य दो प्रकार के मार्गों से चल रहे हैं। एक मार्ग सरलता का मार्ग है और दूसरा कुटिलता का। कैवल्योपनिषत् के अनुसार ('सर्वं जिह्यं मृत्युपदं, आर्जवं ब्रह्मणः पदम्')=कुटिलता मृत्यु का मार्ग है, और सरलता मोक्ष का। इस सरल मार्ग का संकेत ही प्रस्तुत मन्त्र में उपलभ्य है। गत मन्त्र में मेधातिथि ब्रह्म के कीर्तन से जीवन-यापन कर रहे थे। जो व्यक्ति ब्रह्मस्मरण के साथ क्रियाशील बनता है वह सरल मार्ग से ही गति करता है, अतः मन्त्र में कहते हैं कि (नः) = हमें (वरुणः मित्रः अर्यमा)= वरुण, मित्र और अर्यमा (ऋजुनीती) = सरल मार्ग से (नयति) = ले चलते हैं। वस्तुतः सरलता का मार्ग यह है कि वरुण, मित्र व अर्यमा के सिद्धान्त को जीवन का सूत्र बनाना । वरुण-पाशी व व्रतों के बन्धन में अपने को बाँधने की देवता है। यही सब वैयक्तिक उन्नतियों का मूलाधार है। मित्र स्नेह की देवता है–‘प्राणिमात्र से स्नेह करना - सभी में एकत्व देखना'। यह विश्वप्रेम आध्यात्मिक उन्नति का आधार है। अर्यमा दान की देवता है। हमारा जीवन दानशील हो । एवं वरुण, मित्र व अर्यमा ये तीन देव ही त्रिविध उन्नति का मूल बनकर हमारे जीवन को दिव्य बनाते हैं।
इन तीनों का विशेषण (विद्वान्) = दिया गया है। विद्वान् का अर्थ है 'समझदार'। हमें व्रतों का ग्रहण समझदारी के साथ करना है। मूर्खता से हम शरीर को पीड़ित करते हुए व्रत लेते
हैं और हानि उठाते हैं। मूर्खता से अपात्र में दान देकर हम तामस दानी बनते हैं, और मूर्खता से स्नेह करते हुए हम ममत्व में फँसते हैं। हमारे तीनों देवता विद्वान् हों- अर्थात् हम तीनों सिद्धान्तों को समझदारी से जीवन में स्थान दें।
ये जीवन के तीनों सिद्धान्त (देवैः सजोषाः) = दिव्य गुणों के साथ समानरूप से प्रीति करते हुए हमारे कल्याण के साधक होते हैं। हम केवल व्रती न बनें, केवल दानी न बनें और केवल प्रेम करनेवाले न बनें। हमारे जीवन में तीनों सिद्धान्त सम्मिलित रूप से चलें। ऐसा होने पर ही हम इस मन्त्र के ऋषि 'गोतम' - प्रशस्त इन्द्रियोंवाले बनेंगे। तभी हम 'राहू-गण' त्यागशीलों में गिनती के योग्य समझे जाएँगे।
भावार्थ -
भावार्थ-हमारा जीवन व्रतमय, प्रेममय और त्यागमय हो।