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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 233
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣भि꣡ त्वा꣢ शूर नोनु꣣मो꣡ऽदु꣢ग्धा इव धे꣣न꣡वः꣢ । ई꣡शा꣢नम꣣स्य꣡ जग꣢꣯तः स्व꣣र्दृ꣢श꣣मी꣡शा꣢नमिन्द्र त꣣स्थु꣡षः꣢ ॥२३३॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣भि꣢ । त्वा꣣ । शूर । नोनुमः । अ꣡दु꣢ग्धाः । अ । दु꣣ग्धाः । इव । धेन꣡वः꣢ । ई꣡शा꣢꣯नम् । अ꣣स्य꣢ । ज꣡ग꣢꣯तः । स्व꣣र्दृ꣡श꣢म् । स्वः꣣ । दृ꣡श꣢꣯म् । ई꣡शा꣢꣯नम् । इ꣣न्द्र । तस्थु꣡षः꣢ ॥२३३॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि त्वा शूर नोनुमोऽदुग्धा इव धेनवः । ईशानमस्य जगतः स्वर्दृशमीशानमिन्द्र तस्थुषः ॥२३३॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । त्वा । शूर । नोनुमः । अदुग्धाः । अ । दुग्धाः । इव । धेनवः । ईशानम् । अस्य । जगतः । स्वर्दृशम् । स्वः । दृशम् । ईशानम् । इन्द्र । तस्थुषः ॥२३३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 233
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1;
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पदार्थ -

हे (शूर)=सब बुराईयों का संहार करनेवाले प्रभो ! (त्वा अभि) = तेरी ओर आते हुए तेरी (नोनुमः) = खूब स्तुति करते हैं। जब मन खाली हो तो उसे प्रभु की नामस्मरणरूपी बल्ली पर चढ़ाओ व उतारो तब वह मन कभी तुम्हारा संहार न कर पाएगा। उस समय यह मन हमारा उत्तम मित्र होगा और हमारे मोक्ष का साधन बनेगा । प्रभुनाम-स्मरण में व्याप्त मन हमारा मित्र है—खाली मन हमारा शत्रु है।

(अदुग्धाः धेनवः इव)= जो गौवें दुग्धदोह नहीं हो चुकीं, उनके समान । 'धेनु' नवसूतिका गौ है- जिसका यौवन प्रारम्भ हुआ है। उस धेनु के समान यौवन के प्रारम्भ में ही हम आपके स्तोता बनें। यदि यौवन में प्रभुस्मरण से पृथक् न होंगे तो यौवन से भी पृथक् न होंगे।

आप (अस्य) = इस (जगतः) = जङ्गम जगत् के (ईशानम्) = ईशान हैं। हे (इन्द्र) = सर्वेश्वर्यवाले प्रभो! आप (तस्थुषः) = स्थावर जगत् के भी (ईशानम्) = ईशान हैं। चराचर के स्वामी आपका हम ध्यान करें। आपके ध्यान से ही हम भी संसार के दास न बनकर संसार के ईश होंगे। वस्तुतः इस प्रकार आप हमें दास के स्थान में स्वामी बनाकर (स्वर्दृशम्) = स्वर्ग का दर्शन कराते हैं। आपकी उपासना हमारे स्वर्ग का साधन बनती है। हम वसिष्ठ- उत्तम निवासवाले व वशियों में श्रेष्ठ बनते हैं। प्रभु की उपासना हमें सभी के साथ मित्रतावाली व राग-द्वेष से शून्य 'मैत्रावरुणि' बनाती है।

भावार्थ -

हम यौवन में ही प्रभु के उपासक बनें। ‘कर्म-उपासना-कर्म'—यह हमारे जीवन का क्रम हो। हमारे कर्मों के विच्छेद उपासनाओं से भरे हों ।

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