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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 238
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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त꣣र꣢णि꣣रि꣡त्सि꣢षासति꣣ वा꣢जं꣣ पु꣡र꣢न्ध्या यु꣣जा꣢ । आ꣢ व꣣ इ꣡न्द्रं꣢ पुरुहू꣣तं꣡ न꣢मे गि꣣रा꣢ ने꣣मिं꣡ तष्टे꣢꣯व सु꣣द्रु꣡व꣢म् ॥२३८॥

स्वर सहित पद पाठ

त꣣र꣡णिः꣢ । इत् । सि꣣षासति । वा꣡जम् । पु꣡र꣢꣯न्ध्या । पु꣡र꣢꣯म् । ध्या꣣ । युजा꣢ । आ । वः꣣ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । पु꣣रुहूत꣢म् । पु꣣रु । हूत꣢म् । न꣣मे । गिरा꣢ । ने꣣मि꣢म् । त꣡ष्टा꣢꣯ । इ꣣व । सुद्रु꣡व꣢म् । सु꣣ । द्रु꣡व꣢꣯म् ॥२३८॥


स्वर रहित मन्त्र

तरणिरित्सिषासति वाजं पुरन्ध्या युजा । आ व इन्द्रं पुरुहूतं नमे गिरा नेमिं तष्टेव सुद्रुवम् ॥२३८॥


स्वर रहित पद पाठ

तरणिः । इत् । सिषासति । वाजम् । पुरन्ध्या । पुरम् । ध्या । युजा । आ । वः । इन्द्रम् । पुरुहूतम् । पुरु । हूतम् । नमे । गिरा । नेमिम् । तष्टा । इव । सुद्रुवम् । सु । द्रुवम् ॥२३८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 238
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 1;
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पदार्थ -

गत मन्त्र का केन्द्रीभूत विचार यह था कि १. मनुष्य आलस्य को परे फेंककर वेग से कार्य में जुटे, २. संसार- समुद्र का मन्थन करे और ३. उस ‘कारी' प्रभु के निर्देशानुसार कार्य करनेवाला बने। जो व्यक्ति इस प्रकार कार्य में लगा रहता है, वह वासनाओं को तैर जाता है। यह (तरणिः) = वासनाओं को तैरनेवाला (इत्) = सचमुच (वाजम्) = शक्ति, त्याग व ज्ञान का (सिषासति) = सम्यक् सेवन करता है। वासनाओं को तैरे बिना शक्ति, त्याग व ज्ञान को प्राप्त करने का प्रश्न ही नहीं उठता, परन्तु ऐसा वह तभी कर पाता है जब वह (पुरन्ध्या युजा) = पालक और पूरक बुद्धि से संयुक्त होता है। [पृ पालनपूरणयोः से पुरं, धी- बुद्धि ] | आत्मा रथी है तो बुद्धि सारथि है। बुद्धि के बिना यह शरीररूप रथ रथी आत्मा को उद्दिष्ट स्थान पर नहीं पहुँचा सकता। एवं, तरणि आत्मा पुरन्धी से युक्त हो वाज का सेवन कर पाता है और यही तरणि (वः इन्द्रम्) = हम सबके लिए उस परमैश्वर्यशाली (पुरुहूतम्) = बहुतों से पुकारे जाने योग्य प्रभु को (गिरा) = वेदवाणियों के द्वारा (आनमे) = अपने प्रति नत- झुकाववाला=कृपादृष्टिवाला बनाता है। (इव) = जिस प्रकार (तष्टा) = बढ़ई - कारु (सुद्रुवम् नेमिम्) = उत्तम लकड़ीवाली नेमि को झुकाता है।

यहाँ प्रभु को अपनी ओर झुकाववाला करने के दो साधनों का संकेत है- १. (गिरा) = वेदवाणी के द्वारा तथा २. (तष्टेव) = बढ़ई की भँति उत्पादक कार्य में लगे रहने के द्वारा । ज्ञान और कर्म हमें प्रभु की कृपा के पात्र बनाते हैं।

प्रभु को यहाँ ‘सुद्रुवम् नेमिम्' का रूपक दिया है। उत्तम लकड़ीवाली नेमि सदा झुकने को तैयार है। प्रभु सदा कृपा के लिए उद्यत हैं। प्रभु इस संसार - चक्र की नेमि के समान हैं भी, वे ही इन पिण्डों को विच्छिन्न नहीं होने देते।

एवं जीव का कर्तव्य यही है कि वह वासनाओं को जीतकर ‘वसिष्ठ' बने। वासना-विजय के लिए प्राणापान की साधना करनेवाला, 'मैत्रावरुणि' बने । यह मैत्रावरुणि वसिष्ठ ही तरणि है। यही प्रभु की कृपा का पात्र होता है।

भावार्थ -

मैं तरणि बनूँ, पालक व पूरक बुद्धि से युक्त बनूँ, बढ़ई की भाँति उत्पादक कार्यों में लगा रहूँ और प्रभु को अपने प्रति कृपालु बनाऊँ।

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