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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 251
ऋषिः - मेधातिथिर्मेध्यातिथिर्वा काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
12
उ꣢दु꣣ त्ये꣡ मधु꣢꣯मत्तमा꣣ गि꣢र꣣ स्तो꣢मा꣣स ईरते । स꣣त्राजि꣡तो꣢ धन꣣सा꣡ अक्षि꣢꣯तोतयो वाज꣣य꣢न्तो꣣ र꣡था꣢ इव ॥२५१॥
स्वर सहित पद पाठउ꣢द् । उ꣣ । त्ये꣢ । म꣡धु꣢꣯मत्तमाः । गि꣡रः꣢꣯ । स्तो꣡मा꣢꣯सः । ई꣣रते । सत्राजि꣡तः꣢ । स꣣त्रा । जि꣡तः꣢꣯ । ध꣣नसाः꣢ । ध꣣न । साः꣢ । अ꣡क्षि꣢꣯तोतयः । अ꣡क्षि꣢꣯त । ऊ꣣तयः । वाजय꣡न्तः꣢ । र꣡थाः꣢꣯ । इ꣣व ॥२५१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु त्ये मधुमत्तमा गिर स्तोमास ईरते । सत्राजितो धनसा अक्षितोतयो वाजयन्तो रथा इव ॥२५१॥
स्वर रहित पद पाठ
उद् । उ । त्ये । मधुमत्तमाः । गिरः । स्तोमासः । ईरते । सत्राजितः । सत्रा । जितः । धनसाः । धन । साः । अक्षितोतयः । अक्षित । ऊतयः । वाजयन्तः । रथाः । इव ॥२५१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 251
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2;
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विषय - भक्त का सामाजिक जीवन
पदार्थ -
गत मन्त्र में भक्त के निजी जीवन की तीन विशेषताओं का उल्लेख हुआ था। प्रस्तुत मन्त्र में उसके सामाजिक जीवन का चित्रण करते हैं । १. (त्ये स्तोमासः) = वे स्तुति के पुञ्जरूप भक्तलोग (उ)=निश्चय से (मधुमत्तमाः गिरः) = अत्यन्त मधुरवाणियों का (उदीरते) = उच्चारण करते हैं। इनके मुख से कभी कटु शब्दों का उच्चारण नहीं होता। स्तोम शब्द का अर्थ स्तुति होता है, परन्तु भक्ति-रसायन का सेवन करनेवाला यह व्यक्ति सदा स्तुतिरूप शब्दों का उच्चारण करने से 'स्तुति का पुञ्ज' बन गया है। २. (सत्राजितः) = क्रोध का ये सदा संयम करनेवाले हैं। ये अपने में दूसरों के प्रति क्रोध को उत्पन्न नहीं होने देते। ३. धनसा = [सन्- संविभाग] वे दीन-दु:खियों के लिए धन का संविभाग करनेवाले होते हैं। ४. (अ-क्षित ऊतयः)=इसके यहाँ शरणागत की रक्षा का कभी नाश नहीं होता। ये अपने प्राण देकर भी शरण में आए हुए की रक्षा करते हैं । ५. (वाजयन्तः) = उल्लिखित सब कार्यों को करते हुए ये प्रभु की अर्चना करते हैं, जिससे इन कार्यों का उन्हें गर्व न हो जाए। -
इस प्रकार पवित्र व विनीत जीवन बिताते हुए ये (रथा इव) = रममाणा इव= प्रसन्नता का जीवन बिताते हैं, और रहमाणा:- बड़ी तीव्र गति से अपनी जीवन-यात्रा के पथ पर बढ़ते हैं। ये ही वस्तुतः मेधातिथि व मेध्यातिथि हैं।
भावार्थ -
मैं भी प्रभु का सच्चा भक्त बनूँ, मुझसे माधुर्य का प्रवाह बहे ।
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